तुमहिं बिमुख धिक-धिक नर नारि।
हम जानति हैं तुव महिमा कौं, सुनियै हे गिरिधारि।।
सांची प्रीति करो हम तुमसौं, अंतरजामी जानौ।
गृह-जन की नहिं पीर हमारैं, बृथा धर्म-हठ ठानौ।।
पाप पुन्यी दोऊ परित्यागे, अब जो होइ सो होइ।
आस निरास सूर के स्वामी, ऐसी करै न कोइ।।1028।।