डोलत बाँकी कुंज गली।
ब्रज बनिता मृग-सावक-नयनी, बीनति कुसुम कली।।
कमलबदन पर बिथुरि रही लट कुंचित मनहुँ अली।
अधर बिंब, नासिका मनोहर दामिनि दसन चली।।
नाभि परस रोमावलि राजति, कुच जुग बीच चली।
मनहुँ बिबर तै उरग रिंग्यौ, तकि गिरि की संधि थली।।
पृथु नितंब, कटि छीन, हस गति, जघन सघन कदली।
चरन महावर नूपुर मनिमय, बाजत भाँति भली।।
ओट भए अवलोकि, परस्पर बोलति अली अली।
'सूर' सु मोहनलाल रसिक सँग, बन घन माँझ रली।।2619।।