डाकू भगत
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पूरा नाम | डाकू भगत |
कर्म भूमि | भारत |
प्रसिद्धि | भक्त |
नागरिकता | भारतीय |
पुराने जमाने की बात है। एक धनी गृहस्थ के घर भगवत कथा का बड़ा सुन्दर आयोजन हो रहा था। वैशाख का महीना, शुक्लपक्ष की रात्रि का समय। कथावाचक पण्डितजी विद्वान तो थे ही, अच्छे गायक भी थे। वे बीच-बीच में भगवत्सम्बन्धी भावपूर्ण पदों का मधुर कण्ठ से गान भी करते। पहले उन्होंने श्रीमद्भागवत के आधार पर संक्षेप में भगवान के जन्म की कथा सुनायी, फिर नन्दोत्सव का वर्णन करते-करते एक मधुर पद गाया।
कथा का प्रसंग आगे चला। श्रोतागण व्यवहार की चिन्ता और शरीर की सुधि भूलकर भगवदानन्द में मस्त हो गये। बहुतों के शरीर में रोमांच हो आया। कितनों की आँखों में आँसू छलक आये। सभी तन्मय हो रहे थे।[1]
विषय सूची
डाकू भगत का आगमन
उसी समय सुयोग देखकर एक डाकू उस धनी गृहस्थ के घर में घुस आया और चुपचाप धन-रत्न ढूँढ़ने लगा। परंतु भगवान की ऐसी लीला कि बहुत प्रयास करने पर भी उसके हाथ कुछ नहीं लगा। वह जिस समय कुछ-न-कुछ हाथ लगाने के लिये इधर-उधर ढूँढ़ रहा था, उसी समय उसका ध्यान यकायक कथा की ओर चला गया। कथावाचक पण्डित जी महाराज उँचे स्वर से कह रहे थे- "प्रात: काल हुआ। पूर्व दिशा उषा की मनोरम ज्योति और अरुण की लालिमा से रँग गयी। उस समय ब्रज की झाँकी अलौकिक हो रही थी। गौएँ और बछड़े सिर उठा-उठाकर नंद बाबा के महल की ओर सतृष्ण दृष्टि से देख रहे थे, कि अब हमारे प्यारे श्रीकृष्ण हमें आनन्दित करने के लिये आ ही रहे होंगे। उसी समय भगवान श्रीकृष्ण के प्यारे सखा श्रीदामा, सुदामा, वसुदामा आदि ग्वालबालों ने आकर भगवान श्रीकृष्ण और बलराम को बड़े प्रेम से पुकारा- "हमारे प्यारे कन्हैया, आओ न। अब तक तुम सो ही रहे हो? देखो, गौएँ तुम्हें देखे बिना रँभा रही हैं। हम कभी से खड़े हैं। चलो, वन में गौएँ चराने के लिये चलें। दाउ दादा, तुम इतनी देर क्या कर रहे हो।" इस प्रकार ग्वालबालों की पुकार और जल्दी देखकर नन्दरानी ने अपने प्यारे पुत्रों को बड़े ही मधुर स्वर से पुकार-पुकार कर जगाया।
फिर मैया ने स्नेह से उन्हें माखन-मिश्री का तथा भाँति-भाँति के पकवानों का कलेउ करवाकर बड़े चाव से खूब सजाया। लाखों-करोड़ों रुपयों के गहने हीरे-जवाहर और मोतियों से जड़े स्वर्णालंकार अपने बच्चों को पहनाये। मुकुट में, बाजूबन्द में, हार में जो मणियाँ जगमगा रही थीं, उनके प्रकाश के सामने प्रात: काल का उजाला फीका पड़ गया। इस प्रकार भलीभाँति सजाकर नन्दरानी ने अपने लाड़ले पुत्रों के सिर सूँघे और फिर बड़े प्रेम से गौ चराने के लिये उन्हें विदा किया।"
इतनी बातें डाकू ने भी सुनीं; और तो कुछ उसने सुना था नहीं। अब वह सोचने लगा कि ‘अरे ! यह तो बड़ा अनुपम सुयोग है। मैं छोटी-मोटी चीजों के लिये इधर-उधर मारा-मारा फिरता हूँ, यह तो अपार सम्पत्ति हाथ लगने का अवसर है। केवल दो बालक ही तो हैं। उनके दोनों गालों पर दो-दो चपत जड़े नहीं कि वे स्वयं अपने गहने निकालकर मुझे सौंप देंगे।' यह सोचकर वह डाकू धनी गृहस्थ के घर से बाहर निकल आया और कथा के समाप्त होने की बाट देखने लगा।
बहुत रात बीतने पर कथा समाप्त हुई। भगवान के नाम और जयकार के नारों से आकाश गूँज उठा। भक्त गृहस्थ बड़ी नम्रता से ठाकुरजी का प्रसाद ग्रहण करने के लिये सब श्रोताओं से अनुरोध करने लगे। प्रसाद बँटने लगा। उधर यह सब हो रहा था, परंतु डाकू के मन में इन बातों पर कोई ध्यान नहीं था। वह तो रह-रहकर कथावाचक की ओर देख रहा था। उसकी आँखें कथावाचक जी की गति-विधि पर जमी हुई थीं।
डाकू भगत और पण्डित जी संवाद
कुछ समय के बाद प्रसाद पाकर कथावाचक जी अपने डेरे की ओर चले। डाकू भी उनके पीछे-पीछे हो लिया। जब पण्डित जी खुले मैदान में पहुँचे, तब डाकू ने पीछे से कुछ कड़े स्वर में पुकारकर कहा- ‘ओ पण्डित जी ! खड़े रहो।' पण्डित जी के पास दक्षिणा के रुपये-पैसे भी थे, वे कुछ डरकर और तेज चाल से चलने लगे। डाकू ने दौड़ते हुए कहा- ‘पण्डित जी, खड़े हो जाओ। यों भागने से नहीं बच सकोगे।' पण्डित जी ने देखा कि अब छुटकारा नहीं है। वे लाचार होकर ठहर गये। डाकू ने उनके पास पहुँचकर कहा- ‘देखिये, पण्डित जी ! आज जिन कृष्ण और बलराम की बात कह रहे थे, उनके लाखों-करोड़ों रुपयों के गहनों का वर्णन कर रहे थे, उनका घर कहाँ है? वे दोनों गौएँ चराने के लिये कहाँ जाते हैं? आप सारी बातें ठीक-ठीक बता दीजिये। यदि जरा भी टालमटोल की तो बस, देखिये मेरे हाथ में कितना मोटा डंडा है; यह तुरंत आपके सिर के टुकड़े-टुकड़े कर देगा।' पण्डितजी ने देखा, उसका लंबा-चौड़ा दैत्य-सा शरीर बड़ा ही बलिष्ठ है। मजबूत हाथों में मोटी लाठी है, आँखों से क्रूरता टपक रही है। उन्होंने सोचा, हो-न-हो यह कोई डाकू है। फिर साहस बटोरकर कहा- "तुम्हारा उनसे क्या काम है?" डाकू ने तनिक जोर देकर कहा- "जरूरत है।" पण्डित जी बोले- "जरूरत बताने में कुछ अड़चन है क्या?" डाकू ने कहा- "पण्डित जी ! मैं डाकू हूँ। मैं उनके गहने लूटना चाहता हूँ। गहने मेरे हाथ लग गये तो आपको भी अवश्य ही कुछ दूँगा। देखिये, टालमटोल मत कीजिये। ठीक-ठीक बताइये।" पण्डितजी ने समझ लिया कि यह वज्रमूर्ख है। अब उन्होंने कुछ हिम्मत करके कहा- "तब इसमें डर किस बात का है। मैं तुम्हें सब कुछ बतला दूँगा। लेकिन यहाँ रास्ते में तो मेरे पास पुस्तक नहीं है। मेरे डेरे पर चलो। मैं पुस्तक देखकर सब ठीक-ठीक बतला दूँगा।" डाकू उनके साथ-साथ चलने लगा।
डेरे पर पहुँचकर पण्डित जी ने किसी से कुछा कहा नहीं। पुस्तक बाहर निकाली और वे डाकू को भगवान श्रीकृष्ण और बलराम की रूप-माधुरी सुनाने लगे। उन्होंने कहा- "श्रीकृष्ण और बलराम दोनों के ही चरण-कमलों में सोने के सुन्दर नूपुर हैं, जो अपनी रुनझुन ध्वनि से सबके मन मोह लेते हैं। श्यामवर्ण के श्रीकृष्ण पीत वर्ण का और गौर वर्ण के बलराम नील वर्ण का वस्त्र धारण कर रहे हैं। दोनों की कमर में बहुमूल्य मोतियों से जड़ी सोने की करधनी शोभायमान है। गले में हीरे-जवाहरात के स्वर्णहार हैं। हृदय पर कौस्तुभमणि झलमला रही है। ऐसी मणि जगत में और कोई है ही नहीं। कलाई में रत्नजटित सोने के कंगन, कानों में मणि-कुण्डल, सिर पर मनोहर मोहन चूड़ा। घुँघराले काले-काले बाल, ललाट पर कस्तूरी का तिलक, होठों पर मन्द-मन्द मुसकान, आँखों से मानो आनन्द और प्रेम की वर्षा हो रही है। श्रीकृष्ण अपने कर-कमलों में सोने की वंशी लिये उसे अधरों से लगाये रहते हैं। उनकी अंग-कान्ति के सामने करोड़ों सूर्यों की कोई गिनती नहीं। रंग-विरंगे सुगन्धित पुष्पों की माला, तोते की-सी नुकीली नासिका, कुन्द-बीज के समान श्वेत दाँतों की पाँत, बड़ा लुभावना रूप है ! अजी, जब वे त्रिभंगललित भाव से खड़े होते हैं, देखते-देखते नेत्र तृप्त ही नहीं होते। बाँकेबिहारी श्रीकृष्ण जब अपनी बाँसुरी में ‘राधे-राधे-राधे’ की मधुर तान छेड़ते हैं, तब बड़े-बड़े ज्ञानी भी अपनी समाधि से पिण्ड छुड़ाकर उसे सुनने के लिये दौड़ आते हैं। यमुना के तट पर वृन्दावन में कदम्ब वृक्ष के नीचे प्राय: उनके दर्शन मिलते हैं। वनमाली श्रीकृष्ण और हलधारी बलराम।'
डाकू ने पूछा- "अच्छा पण्डित जी, सब गहने मिलाकर कितने रुपयों के होंगे?" पण्डित जी ने कहा- "ओह, इसकी कोई गिनती नहीं है। करोड़ों-अरबों से भी ज्यादा!" डाकू- ‘तब क्या जितने गहनों के आपने नाम लिये, उनसे भी अधिक हैं?' पण्डित जी- ‘तो क्या? संसार की समस्त सम्पत्ति एक ओर और कौस्तुभमणि एक ओर। फिर भी कोई तुलना नहीं।' डाकू ने आनन्द से गदगद होकर कहा- ‘ठीक है, ठीक है! और कहिये, वह कैसी है?' पण्डित जी- ‘वह मणि जिस स्थान पर रहती है, सूर्य के समान प्रकाश हो जाता है। वहाँ अँधेरा रह नहीं सकता। वैसा रत्न पृथ्वी में और कोई है ही नहीं!' डाकू- ‘तब तो उसके दाम बहुत ज्यादा होंगे। क्या बोले? एक बार भलीभाँति समझा तो दीजिये। हाँ, एक बात तो भूल ही गया। मुझे किस ओर जाना चाहिये?' पण्डित जी ने सारी बातें दुबारा समझा दीं। डाकू ने कहा- ‘देखिये, पण्डित जी ! मैं शीघ्र ही आकर आपको कुछ दूँगा। यहाँ से ज्यादा दूर तो नहीं है न? मैं एक ही रात में पहुँच जाउँगा, क्यों? अच्छा; हाँ-हाँ, एक बात और बताइये। क्या वे प्रतिदिन गौएँ चराने जाते हैं?’ पण्डित जी- ‘हाँ, और तो क्या?’ डाकू- ‘कब आते हैं?' पण्डित जी- 'ठीक प्रात: काल। उस समय थोड़ा-थोड़ा अँधेरा भी रहता है।' डाकू- ‘ठीक है, मैंने सब समझ लिया। हाँ तो, अब मुझे किधर जाना चाहिये?' पण्डित जी- ‘बराबर उत्तर की ओर चले जाओ।' डाकू प्रणाम करके चल पड़ा।
पण्डित जी मन-ही-मन हँसने लगे। देखो, यह कैसा पागल है! थोड़ी देर बाद उन्हें चिन्ता हो आयी, यह मूर्ख दो-चार दिन तो ढूँढ़ने का प्रयत्न करेगा। फिर लौटकर कहीं यह मुझपर अत्याचार करने लगा तो? किंतु नहीं, यह बड़ा विश्वासी है। लौटकर आयेगा तो एक रास्ता और बतला दूँगा। यह दो-चार दिन भटकेगा, तब तक मैं कथा समाप्त करके यहाँ से चलता बनूँगा। इससे पिण्ड छुड़ाने का और उपाय ही क्या है। पण्डित जी कुछ-कुछ निश्चिन्त हुए।
डाकू अपने घर गया। उसकी भूख, प्यास, नींद सब उड़ गयी। वह दिन-रात गहनों की बात सोचा करता, चमकीले गहनों से लदे दोनों नयन-मन-हरण बालक उसकी आँखों के सामने नाचते रहते। डाकू के मन में एक ही धुन थी। अँधेरा हुआ, डाकू ने लाठी उठाकर कंधे पर रखी। वह उत्तर दिशा की ओर चल पड़ा। वह उत्तर भी उसकी अपनी धुन का ही था, दूसरों के देखने में शायद वह दक्खिन ही जा रहा हो! उसे इस बात का भी पता नहीं था कि उसके पैर धरती पर पड़ रहे हैं या काँटों पर।
चमत्कारिक प्रसंग
एक स्थान पर चलते-चलते डाकू की आँख खुली। उसने देखा, बड़ा सुन्दर हरा-भरा वन है। एक नदी भी कल-कल करती बह रही है। उसने सोचा, निश्चय किया ‘यही है, यही है! परंतु वह कदम्ब का पेड़ कहाँ है?' डाकू बड़ी सावधानी के साथ एक-एक वृक्ष के पास जाकर कदम्ब को पहचानने की चेष्टा करने लगा। अन्त में वहाँ उसे एक कदम्ब मिल ही गया। अब उसके आनन्द की सीमा न रही। उसने सन्तोष की साँस ली और आस-पास आँखें दौड़ायीं। एक छोटा-सा पर्वत, घना जंगल और गौओं के चरने का मैदान भी दीख गया। हरी-हरी दूब रात के स्वाभाविक अँधेरे में घुल-मिल गयी थी। फिर भी उसके मन के सामने गौओं के चरने और चराने वालों की एक छटा छिटक ही गयी। अब डाकू के मन में एक ही विचार था। कब सबेरा हो, कब अपना काम बने। वह एक-एक क्षण सावधानी से देखता और सोचता कि आज सबेरा होने में कितनी देर हो रही है! ज्यों-ज्यों रात बीतती, त्यों-त्यों उसकी चिन्ता, उद्वेग, उत्तेजना, आग्रह और आकुलता बढ़ती जाती। वह कदम्ब पर चढ़ गया और देखने लगा कि किसी ओर उजाला तो नहीं है। कहीं से वंशी की आवाज तो नहीं आ रही है? उसने अपने मन को समझाया- "अभी सबेरा होने में देर है। मैं ज्यों ही वंशी की धुन सुनूँगा, त्यों ही टूट पड़ूँगा।" इस प्रकार सोचता हुआ बड़ी ही उत्कण्ठा के साथ वह डाकू सबेरा होने की बाट जोहने लगा।
देखते-ही-देखते माने किसी ने प्राची दिशा का मुख रोली के रंग से रँग दिया। डाकू के हृदय में आकुलता और भी बढ़ गयी। वह पेड़ से कूदकर जमीन पर आया, परंतु वंशी की आवाज सुनायी न पड़ने के कारण फिर उछलकर कदम्ब पर चढ़ गया। वहाँ भी किसी प्रकार की आवाज सुनायी नहीं पड़ी। उसका हृदय मानो क्षण-क्षण पर फटता जा रहा था। अभी-अभी उसका हृदय विहर उठता; परंतु यह क्या, उसकी आशा पूर्ण हो गयी! दूर, बहुत दूर वंशी की सुरीली स्वर-लहरी लहरा रही है। वह वृक्ष से कूद पड़ा। हाँ, ठीक है, ठीक है; बाँसुरी ही तो है। अच्छा, यह स्वर तो और समीप होता जा रहा है! डाकू आनन्द के आवेश में अपनी सुध-बुध खो बैठा और मूर्च्छित होकर धरती पर गिर पड़ा। कुछ ही क्षणों में उसकी बेहोशी दूर हुई, आँखें खुलीं; वह उठकर खड़ा हो गया। देखा तो पास ही जंगल में एक दिव्य शीतल प्रकाश चारों ओर फैल रहा है। उस मनोहर प्रकाश में दो भुवन-मोहन बालक अपने अंग की अलौकिक छटा बिखेर रहे हैं। गौएँ और ग्वालबाल उनके आगे-आगे कुछ दूर निकल गये हैं।
श्रीकृष्ण और डाकू भगत संवाद
डाकू ने उन्हें देखा, अभी पुकार भी नहीं पाया था कि मन मुग्ध हो गया- "अहाहा! कैसे सुन्दर चेहरे हैं इनके, आँखों से तो अमृत ही बरस रहा है। और इनके तो अंग-अंग बहुमूल्य आभूषणों से भरे हैं। हाय-हाय! इतने नन्हे-नन्हे सुकुमार शिशुओं को माँ-बाप ने गौएँ चराने के लिये कैसे भेजा? ओह! मेरा तो जी भरा आता है- मन चाहता है, इन्हें देखता ही रहूँ! इनके गहने उतारने की बात कैसी, इन्हें तो और भी सजाना चाहिये। नहीं, मैं इनके गहने नहीं छीनूँगा। ना, ना गहने नहीं छीनूँगा तो फिर आया ही क्यों? ठीक है। मैं गहने छीन लूँगा। परंतु इन्हें मारूँगा नहीं। बाबा-रे-बाबा, मुझसे यह काम न होगा! धत तेरे की! यह मोह-छोह कैसा? मैं डाकू हूँ, डाकू। मैं और दया? बस, बस, मैं अभी गहने छीने लेता हूँ। यह कहते-कहते डाकू भगत श्रीकृष्ण और बलराम की ओर दौड़ा। भगवान श्रीकृष्ण और बलराम के पास पहुँचकर उनका स्वरूप देखते ही डाकू भगत की चेतना एक बार फिर लुप्त हो गयी। पैर लड़खड़ाये और वह गिर पड़ा। फिर उठा। कुछ देर टकटकी लगाये देखता रहा, आँखें आँसुओं से भर आयीं। फिर न मालूम क्या सोचा, हाथ में लाठी लेकर उनके सामने गया और बोला- "खड़े हो जाओ। सारे गहने निकालकर मुझे दे दो।"
श्रीकृष्ण- "हम अपने गहने तुम्हें क्यो दें?"
डाकू- "दोगे नहीं? मेरी लाठी की ओर देखो।"
श्रीकृष्ण- "लाठी से क्या होगा?"
डाकू- "अच्छा, क्या होगा? गहना न देने पर तुम्हारे सिर तोड़ डालूँगा; और क्या होगा?"
श्रीकृष्ण- "नहीं, हम लोग गहने नहीं देंगे।"
डाकू- "अभी-अभी मैं कान पकड़ के ऐंठूँगा और सारे गहने छीन-छानकर तुम्हें नदी में फेंक दूँगा।"
श्रीकृष्ण- (जोर से) "बाप-रे-बाप ! ओ बाबा ! ओ बाबा !"
डाकू ने झपटकर अपने हाथ से श्रीकृष्ण का मुँह दबाना चाहा, परंतु स्पर्श करते ही उसके सारे शरीर में बिजली दौड़ गयी। वह अचेत होकर धड़ाम से धरती पर गिर पड़ा। कुछ क्षणों के बाद जब चेत हुआ, तब वह श्रीकृष्ण से बोला- "अरे, तुम दोनों कौन हो? मैं ज्यों-ज्यों तुम दोनों को देखता हूँ, त्यों-त्यों तुम मुझे और सुन्दर, और मधुर, और मनोहर क्यों दीख रहे हो? मेरी आँखों की पलकें पड़नी बंद हो गयीं। हाय! हाय! मुझे रोना क्यों आ रहा है? मेरे शरीर के सब रोएँ क्यों खड़े हो गये हैं? जान गया, जान गया, तुम दोनों देवता हो, मनुष्य नहीं हो।"
श्रीकृष्ण- (मुसकराकर) "नहीं, हम मनुष्य हैं। हम ग्वालबाल हैं। हम ब्रज के राजा नन्दबाबा के लड़के हैं।"
डाकू- अहा! कैसी मुस्कान है ! "जाओ, जाओ; तुम लोग गौएँ चराओ। मैं अब गहने नहीं चाहता। मेरी आशा-दुराशा, मेरी चाह-आह सब मिट गयीं। हाँ, मैं चाहता हूँ कि तुम दोनों के सुरंग अंगों में अपने हाथों से और भी गहने पहनाऊँ। जाओ, जाओ। हाँ, एक बार अपने दोनों लाल-लाल चरण कमलों को तो मेरे सिर पर रख दो। हाँ, हाँ; जरा हाथ तो इधर करो! मैं एक बार तुम्हारी स्निग्ध हथेलियों का चुम्बन करके अपने प्राणों को तृप्त कर लूँ। ओह, तुम्हारा स्पर्श कितना शीतल, कितना मधुर ! धन्य ! धन्य !! तुम्हारे मधुर स्पर्श से हृदय की ज्वाला शान्त हो रही है। आशा-अभिलाषा मिट गयी। जाओ, हाँ-हाँ, अब तुम जाओ। मेरी भूख-प्यास मिट गयी। अब कहीं जाने की इच्छा नहीं होती। मैं यहीं रहूँगा। तुम दोनों रोज इसी रास्ते से जाओगे न? एक बार केवल एक क्षण के लिये प्रतिदिन, हाँ, प्रतिदिन मुझे दर्शन देते रहना। देखो, भूलना नहीं। किसी दिन नहीं आओगे- दर्शन नहीं दोगे तो याद रखो, मेरे प्राण छटपटाकर छूट ही जायँगे।"
श्रीकृष्ण- "अब तुम हम लोगों को मारोगे तो नहीं? गहने तो नहीं छीन लोगे? हाँ, ऐसी प्रतिज्ञा करो तो हम लोग प्रतिदिन आ सकते हैं।"
डाकू- "प्रतिज्ञा? सौ बार प्रतिज्ञा! अरे भगवान की शपथ! तुम लोगों को मैं कभी नहीं मारूँगा। तुम्हें मार सकता हो, ऐसा कोई है जगत में? तुम्हें तो देखते ही सारी शक्ति गायब हो जाती है, मन ही हाथ से निकल जाता है। फिर कौन मारे और कैसे मारे। अच्छा, तुम लोग जाओ!"
श्रीकृष्ण- "यदि तुम्हें हम लोग गहना दें तो लोगे?"
डाकू- "गहना, गहना? अब गहने क्या होंगे? अब तो कुछ भी लेने की इच्छा नहीं है।"
श्रीकृष्ण- "क्यों नहीं? ले लो। हम तुम्हें दे रहे हैं न!"
डाकू- "तुम दे रहे हो? तुम मुझे दे रहे हो? तब तो लेना ही पड़ेगा। परंतु तुम्हारे माँ-बाप तुम पर नाराज होंगे, तुम्हें मारेंगे तो?"
श्रीकृष्ण- "नहीं-नहीं, हम राजकुमार हैं। हमरो पास ऐसे-ऐसे न जाने कितने गहने हैं। तुम चाहो तो तुम्हें और भी बहुत-से गहने दे सकते हैं।"
डाकू- "ऊहूँ, मैं क्या करूँगा। हाँ, हाँ; परंतु तुम्हारी बात टाली भी तो नहीं जाती। क्या तुम्हारे पासे और गहने हैं? सच बोलो।"
श्रीकृष्ण- "हैं नहीं तो क्या हम बिना हुए ही दे रहे हैं? लो, तुम इन्हें ले जाओ।"
भगवान श्रीकृष्ण अपने शरीर पर से गहने उतारकर देने लगे। डाकू ने कहा- "देखो भाई! यदि तुम देना ही चाहते हो तो मेरा यह दुपट्टा ले लो और इसमें अपने हाथों से बाँध दो। किंतु देखो, लाला! यदि तुम मेरी इच्छा जानकर बिना मन के दे रहे हो तो मुझे गहने नहीं चाहिये। मेरी इच्छा तो अब बस, एक यही है कि रोज एक बार तुम्हारे मनोहर मुखड़े को मैं देख लिया करूँ और एक बार तुम्हारे चरणतल से अपने सिर का स्पर्श करा लिया करूँ।" श्रीकृष्ण- "नहीं-नहीं, बेमन की बात कैसी। तुम फिर आना, तुम्हें इस बार गहने देंगे।" श्रीकृष्ण ने उसके दुपट्टे में सब गहने बाँध दिये। डाकू ने गहने की पोटली हाथ में लेकर कहा- "क्यों भाई! मैं फिर आउँगा तो तुम मुझे गहने दोगे न? गहने चाहे न देना, परंतु दर्शन जरूर देना।" श्रीकृष्ण ने कहा- "अवश्य! गहने भी और दर्शन भी दोनों।"
डाकू भगत का पुन: आगमन
डाकू गहने लेकर अपने घर के लिये रवाना हुआ। डाकू आनन्द के समुद्र में डूबता-उतरता घर लौटा। दूसरे दिन रात के समय कथावाचक पण्डित जी के पास जाकर सब वृत्तान्त कहा और गहनों की पोटली उनके सामने रख दी। बोला- "देखिये, देखिये, पण्डित जी ! कितने गहने लाया हूँ। आपकी जितनी इच्छा हो, ले लीजिये। पण्डित जी तो यह सब देख-सुनकर चकित रह गये। उन्होंने बड़े विस्मय के साथ कहा- "मैंने जिनकी कथा कही थी, उनके गहने ले आया?" डाकू बोला- "तब क्या, देखिये न; यह सोने की वंशी! यह सिर का मोहन चूड़ामणि! !" पण्डित जी हक्के-बक्के रह गये। बहुत सोचा, बहुत विचारा; परंतु वे किसी निश्चय पर नहीं पहुँच सके। जो अनादि, अनन्त पुरुषोत्तम हैं, बड़े-बड़े योगी सारे जगत को तिनके के समान त्यागकर, भूख-प्यास-नींद की उपेक्षा करके सहस्त्र-सहस्त्र वर्ष पर्यन्त जिनके ध्यान की चेष्टा करते हैं, परंतु दर्शन से वंचित ही रह जाते हैं, उन्हें यह डाकू देख आया? उनके गहने ले आया? ना, ना असम्भव ! हो नहीं सकता। परंतु यह क्या ! यह चूड़ामणि, यह बाँसुरी, ये गहने, सभी तो अलौकिक हैं- इसे ये सब कहाँ, किस तरह मिले? कुछ समझ में नहीं आता। क्षणभर ठहरकर पण्डित जी ने कहा- "क्यों भाई! तुम मुझे उसके दर्शन करा सकते हो?" डाकू- "क्यों नहीं, कल ही साथ चलिये न?" पण्डित जी पूरे अविश्वास के साथ केवल उस घटना का पता लगाने के लिये डाकू के साथ चल पड़े और दूसरे दिन नियत स्थान पर पहुँच गये। पण्डित जी ने देखा एक सुन्दर-सा वन है। छोटी-सी नदी बह रही है, बड़ा-सा मैदान और कदम्ब का वृक्ष भी है। वह ब्रज नहीं है, यमुना नहीं है; पर है कुछ वैसा ही। रात बीत गयी, सबेरा होने के पहले ही डाकू ने कहा- "देखिये, पण्डित जी ! आप नये आदमी हैं। आप किसी पेड़ की आड़ में छिप जाइये! वह कहीं आपको देखकर न आये तो! अब प्रात: काल होने में विलम्ब नहीं है। अभी आयेगा।" डाकू पण्डित जी से बात कर ही रहा था कि मुरली की मोहक ध्वनि उसके कानों में पड़ी।
वह बोल उठा- "सुनिये, सुनिये, पण्डित जी ! बांसुरी बज रही है! कितनी मधुर! कितनी मोहक! सुन रहे हैं न?" पण्डित जी- "कहाँ जी, मैं तो कुछ नहीं सुन रहा हूँ। क्या तुम पागल हो गये हो?" डाकू- "पण्डित जी ! पागल नहीं, जरा ठहरिये; अभी आप उसे देखेंगे। रुकिये, मैं पेड़पर चढ़कर देखता हूँ कि वह अभी कितनी दूर हैं।"
डाकू ने पेड़ पर चढ़कर देखा और कहा- "पण्डित जी ! पण्डित जी ! ! अब वह बहुत दूर नहीं है।" उतरकर उसने देखा कि थोड़ी दूर पर वैसा ही विलक्षण प्रकाश फैल रहा है। वह आनन्द के मारे पुकार उठा- "पण्डित जी! वह है, वह है। उसके शरीर की दिव्य ज्योति सारे वन को चमका रही है।" पण्डित जी- "मैं तो कुछ नहीं देखता।" डाकू- "ऐसा क्यों, पण्डित जी? वह इतना निकट है, इतना प्रकाश है; फिर भी आप नहीं देख पाते हैं? अजी! आप जंगल, नदी, नाला-सब कुछ देख रहे हैं और उसको नहीं देख पाते?" पण्डित जी- "हाँ भाई! मैं तो नहीं देख रहा हूँ। देखो, यदि सचमुच वे हैं तो तुम उनसे कहो कि ‘आज तुम जो देना चाहते हो, सब इसी ब्राह्मण के हाथ पर दे दो।' डाकू ने स्वीकार कर लिया।
अब तक भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी डाकू के पास आकर खड़े हो गये थे। डाकू ने कहा- "आओ, आओ; मैं आ गया हूँ। तुम्हारी बाट जोह रहा था।" श्रीकृष्ण- "गहने लोगे?" डाकू- "नहीं भाई! मैं गहने नहीं लूँगा। जो तुमने दिये थे, वे भी तुम्हें देने के लिये लौटा लाया हूँ; तुम अपना सब ले लो। लेकिन भैया, ये पण्डित जी मेरी बात पर विश्वास नहीं कर रहे हैं। विश्वास कराने के लिये ही मैं इन्हें साथ लाया हूँ। मैं तुम्हारी वंशी-ध्वनि सुनता हूँ। तुम्हारी अंगकान्ति से चमकते हुए वन को देखता हूँ, तुम्हारे साथ बातचीत करता हूँ। परंतु पण्डित जी यह सब देख-सुन नहीं रहे हैं। यदि तुम इन्हें नहीं दिखोगे तो ये मेरी बात पर विश्वास नहीं करेंगे।" श्रीकृष्ण- "अरे भैया, अभी ये मेरे दर्शन के अधिकारी नहीं है। बूढ़े, विद्वान अथवा पण्डित हैं तो क्या हुआ।" डाकू- "नहीं, भाई! मैं बलिहारी जाउँ तुम पर। उनके लिये जो कहो, वही कर दूँ। परंतु एक बार इन्हें अपनी बाँकी झाँकी जरूर दिखा दो।" श्रीकृष्ण ने हंसकर कहा- "अच्छी बात, तुम मुझे और पण्डित जी को एक साथ ही स्पर्श करो।" डाकू के ऐसा करते ही पण्डित जी की दृष्टि दिव्य हो गयी। उन्होंने मुरलीमनोहर पीताम्बरधारी श्यामसुन्दर की बाँकी झाँकी के दर्शन किये। फिर तो दोनों निहाल होकर भगवान के चरणों में गिर पड़े।[1]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 पुस्तक- भक्त चरितांक | प्रकाशक- गीता प्रेस, गोरखपुर | विक्रमी संवत- 2071 (वर्ष-2014) | पृष्ठ संख्या- 604
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