झिरकि कै नारि -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग मारू



झिरकि कै नारि, दै गागि गिरिधारि तब,
पूँछ पर लात दै अहि जगायौ।
उठयौ आकुलाइ, डरपाइ खग-राइ कौं,
देखि बालक गरब अति बढ़ायौ।
पूँछ लीन्ही झटकि धरनि सौं गहि पटकि,
फुंकरयौ लटकि करि क्रोध फूले।
पूँछ राखी चाँपि, रिसनि काली काँपि,
देखि सब साँपि- अवसान भूले।
करत फन- घात, विष जात उतरात अति,
नीर जरि जात, नहिं गात परसै।
सूर के स्याम, प्रभु, लोक- अभिराम, बिनु,
जान-अहिराज बिष ज्वाल बरसै।।552।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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