ज्यौं भयौ रिषभदेव-अवतार 2 -सूरदास

सूरसागर

पंचम स्कन्ध

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राग बिलावल
ऋषभदेव-अवतार



बहुरौ भरतहिं दै करि राज। रिषभ ममत्व देह कौ त्याज।
उनमत की ज्यौं बिचरन लागे। असन बसन की सुरतहिं त्यागे।
कोउ खवावै तौ कछु खाहिं। नातरु बैठेही रहि जाहिं।
मूत्र पुरीष अंग लपटावै। गंध वास दस जोजन छावै।
अष्ट सिद्धि बहुरौ तहँ आई। रिषभदेव ते मुँह न लगाई।
राजा रहत हूतौ तहँ एक। भयौ स्रावगी रिषभहिं देखि।
बेद धर्म तजि कै न अन्हावै। प्रजा सकल कौं यहै सिखावै।
अजहूँ स्रावग ऐसोहि करैं। ताही कौ मारग अनुसरै।
अंतर क्रिया रहति नहिं जानै। बाहर क्रिया देखि मन मानै।
बरन्यौ रिषभदेव अवतार। सूरदास भागवतऽनुार।। 2 ।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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