श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-17
श्रद्धात्रय विभाग योग
पर वास्वत में अर्जुन की भाँति भाग्य इस जगत् में अन्य किसी का नहीं है। धृतराष्ट्र से संजय ने कहा-“हे कौरवाधिपति! अपने शत्रु (अर्जुन) का यह सद्गुण देखकर वास्तव में उसके विषय में प्रेम से परिपूर्ण आदर का भाव ही उत्पन्न होता है और हम लोगों को आनन्दरूपी मन्त्र का उपदेश करने के लिये यह हमारा गुरु हुआ है। यदि इस अर्जुन ने भगवान् से प्रश्न ही न किया होता तो उन्होंने अपने हृदय में छिपा हुआ रहस्य क्यों खोला होता? और तब हम लोगों को भी परमार्थ की प्राप्ति कैसे होती? हम लोग अज्ञानान्धकार में जैसे-तैसे जन्म व्यतीत कर रहे थे; पर उसने हम लोगों को आत्मज्ञान के प्रकाशरूपी मन्दिर में लाकर खड़ा कर दिया है। हम लोगों पर उसने यह कितना बड़ा उपकार किया है! वास्तव में गुरु के सम्बन्ध से उसे श्रीव्यास मुनि का सहोदर ही जानना चाहिये।” इतना कहकर संजय अपने मन में सोचने लगा कि मैं जो अर्जुन की अभ्यर्थना कर रहा हूँ, यह निश्चय ही महाराज धृतराष्ट्र के मन में खटकेगी, अत: अब इस विषय में और कुछ न कहना ही श्रेयस्कर है। यही सोच करके उसने उस समय चुप्पी साध ली। फिर उसने उस प्रकरण की चर्चा छेड़ दिया जो अर्जुन ने उस समय भगवान् से स्पष्ट करने के लिये कहा था। श्रीनिवृत्तिनाथ के शिष्य ज्ञानदेव कहते हैं कि जो कुछ संजय ने किया था, वही अब मैं भी करूँगा। हे श्रोतावृन्द! आप लोग ध्यानपूर्वक सुनें।[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (414-433)
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