ज्ञानेश्वरी पृ. 680

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

Prev.png

अध्याय-17
श्रद्धात्रय विभाग योग

पर वास्वत में अर्जुन की भाँति भाग्य इस जगत् में अन्य किसी का नहीं है। धृतराष्ट्र से संजय ने कहा-“हे कौरवाधिपति! अपने शत्रु (अर्जुन) का यह सद्गुण देखकर वास्तव में उसके विषय में प्रेम से परिपूर्ण आदर का भाव ही उत्पन्न होता है और हम लोगों को आनन्दरूपी मन्त्र का उपदेश करने के लिये यह हमारा गुरु हुआ है। यदि इस अर्जुन ने भगवान् से प्रश्न ही न किया होता तो उन्होंने अपने हृदय में छिपा हुआ रहस्य क्यों खोला होता? और तब हम लोगों को भी परमार्थ की प्राप्ति कैसे होती? हम लोग अज्ञानान्धकार में जैसे-तैसे जन्म व्यतीत कर रहे थे; पर उसने हम लोगों को आत्मज्ञान के प्रकाशरूपी मन्दिर में लाकर खड़ा कर दिया है। हम लोगों पर उसने यह कितना बड़ा उपकार किया है! वास्तव में गुरु के सम्बन्ध से उसे श्रीव्यास मुनि का सहोदर ही जानना चाहिये।” इतना कहकर संजय अपने मन में सोचने लगा कि मैं जो अर्जुन की अभ्यर्थना कर रहा हूँ, यह निश्चय ही महाराज धृतराष्ट्र के मन में खटकेगी, अत: अब इस विषय में और कुछ न कहना ही श्रेयस्कर है। यही सोच करके उसने उस समय चुप्पी साध ली। फिर उसने उस प्रकरण की चर्चा छेड़ दिया जो अर्जुन ने उस समय भगवान् से स्पष्ट करने के लिये कहा था। श्रीनिवृत्तिनाथ के शिष्य ज्ञानदेव कहते हैं कि जो कुछ संजय ने किया था, वही अब मैं भी करूँगा। हे श्रोतावृन्द! आप लोग ध्यानपूर्वक सुनें।[1]

Next.png

टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (414-433)

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः