ज्ञानेश्वरी पृ. 553

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-15
पुरुषोत्तम योग

जिस सौभाग्य से इस प्रकार के शब्द मुख से निकलते हैं कि उनके समक्ष स्वयं वेद भी बहुत ही तुच्छ दृष्टिगत होते हैं, और कैवल्य तत्त्व उनकी बराबरी नहीं कर सकता, जिस सौभाग्य से वाणीरूप बेल इस प्रकार लहलहाने लगती है कि श्रवण-सुखरूपी मण्डप के नीचे सारे जगत् को वसन्त की शोभा का अनुभव होता है, जिस सौभाग्य के कारण ऐसा चमत्कार दिखायी देता है कि जिस परमात्मा का पता न लगने के कारण मन के साथ वाणी को भी निराश होकर लौट आना पड़ता है, वही परमात्मा शब्दों के लिये भी गोचर हो जाता है, जिस सौभाग्य से उस इन्द्रियातीत ब्रह्म-तत्त्व का शब्दों में वर्णन किया जा सकता है, जो सामान्यतः ज्ञान के लिये अगम्य और ध्यान के लिये असाध्य होता है, वही परम सौभाग्य श्रीगुरुदेव के चरण कमलों की धूलि का एक कण प्राप्त होते ही वाणी में आ सकती है। अब इससे अधिक मैं और क्या कहूँ? मैं ज्ञानदेव स्पष्ट रूप से कहता हूँ कि इस गुरु-प्रेम की भाँति प्रेम माता के अलावा कहीं अन्यत्र नहीं मिल सकता। कारण कि मैं नन्हें से बालक की भाँति हूँ और श्रीगुरुदेव ऐसी माता की भाँति हैं, जिसका इकलौता लड़का होता है; इसलिये उनकी कृपा का प्रवाह निरन्तर केवल मेरी ही ओर बहता रहता है। हे श्रोतावृन्द! जैसे मेघ अपनी सम्पूर्ण जल-सम्पत्ति चातकों के लिये उड़ेल देता है वैसे ही गुरुदेव ने भी मुझ पर अपनी करुणा-वृष्टि की है। इसी का यह परिणाम है कि जिस समय मैं बकवास करने लगा, उस समय उसी बकवास में से भी गीता का मधुर रहस्य टपक पड़ा। यदि भाग्य अनुकूल हो तो बालू भी रत्न हो जाता है और यदि आयुष्य अवशिष्ट हो तो मारने वाला भी दया और प्रेम करने लगता है।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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