श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग
आप इस विश्व के अनादि और आदि कारण हैं; परन्तु जिस समय आप सभा में विराजमान होते थे, उस समय मैं सगे-सम्बन्धी के नाते से हँसी-मजाक भी किया करता था। मैं जब कभी भी आपके घर जाता था, वहाँ आप मेरा अत्यधिक सम्मान करते थे और यदि उस सम्मान में आप जरा-सा भी कमी करते थे तो मैं अपने लाड़-प्यार के कारण आपसे रुष्ट भी हो जाया करता था। हे शांर्गधर! मैंने आपके साथ अनेक बार इसी प्रकार का आचरण किया है, जिसके लिये अब मुझे आपके चरणों पर गिरकर आपसे क्षमा माँगनी चाहिये। स्नेह के कारण मैं अनेक बार आपके सम्मुख पीठ करके बैठा हूँ, पर हे देव! क्या इस प्रकार बैठना मेरे लिये उचित था? कभी नहीं। मैंने बहुत बड़ी भूल की। हे देव! कभी-कभी मैं आपके गले में बाँहें डाल दिया करता था, अखाड़े में आपके साथ हुड़दंग मचाया करता था तथा उठा-पटक किया करता था। चौपड़ खेलते समय बेईमानी की चाल चलकर उल्टे आपके साथ झगड़ा कर बैठता था। जिस समय कोई सुन्दर चीज दिखायी देती थी, उस समय आपसे यह हठ करता था कि पहले यह चीज मुझको ही मिलनी चाहिये। केवल इतना ही नहीं आपको अक्ल देने में भी मैंने कभी कोर-कसर नहीं छोड़ी और अनेक बार तो मैंने आपसे ऐसी अमर्यादित बातें भी कही हैं कि हम तुम्हारे कौन होते हैं? मेरा यह अपराध इतना विशाल है कि वह तीनों लोकों में भी नहीं समा सकता। पर हे देव! मैं आपके चरण छूकर कहता हूँ कि मुझसे ये सब त्रुटियाँ एकदम अनजान में हुई हैं। हे प्रभु! आप तो भोजन के समय मुझे याद करते थे, पर मेरा यह व्यर्थ का अहंकार देखिये कि मैं उल्टे आपसे रुष्ट होकर बैठ जाया करता था, आपके शयनकक्ष में आनन्दपूर्वक क्रीड़ा करता रहता था और आपकी शय्या पर आपके ही साथ सोया करता था। |
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