श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग
हे अर्जुन! मैं काल हूँ और संसार को निगल जाना मेरा यह एक खेल है। हे स्वामी! मैं यह मानता हूँ कि आपकी यह वाणी अटल सत्य है। परन्तु विचार की कसौटी पर यह बात कुछ खरी नहीं उतरती कि आज संसार की स्थिति अथवा अस्तित्व का समय होने पर भी आप अपना काल-स्वरूप प्रकट करके सारे संसार को निगल रहे हैं। शरीर में भरा हुआ तारुण्य किस प्रकार निकाला जा सकता है और उसकी जगह पर असमय में ही वृद्धावस्था भला कैसे भरी जा सकती है? इसलिये आप जो कुछ कह रहे हैं, वह प्रायः असम्भव-सा जान पड़ता है। हे अनन्त भगवान्! क्या चार पहर पूरे होने से पूर्व ही बीच में भी कभी सूर्यास्त होता है? यदि वास्तविक दृष्टि से देखा जाय तो आप अखण्डित कालस्वरूप हैं और आपके तीन पृथक्-पृथक् कार्यों के लिये अलग-अलग समय नियत हैं और उनमें से प्रत्येक समय अपने-अपने क्षेत्र में सबल रहता है। जिस समय उत्पत्ति होने लगती है, उस समय स्थिति और प्रलय का अभाव रहता है और स्थिति काल में उत्पत्ति तथा प्रलय उपस्थित नहीं रहता। तदनन्तर, जिस समय प्रलयकाल आता है उस समय उत्पत्ति और स्थिति के लिये कोई स्थान नहीं रहता। इस अनादि परिपाटी में किसी कारण भी कोई अन्तर नहीं होता और इस समय जगत् का ठीक उपभोग का स्थिति काल है और इसीलिये यह बात मेरे अन्तःकरण में नहीं बैठती कि आप इसी समय उसे निगल लेना चाहते हैं तथा उसका नाश कर डालना चाहते हैं।” उस समय भगवान् ने संकेत से यह कहा कि हे अर्जुन! यह बात मैंने तुम्हें अभी प्रत्यक्ष करके दिखला दी है कि इन दोनों सेनाओं की आयु पूरी हो गयी है। पर यदि सचमुच देखा जाय तो यह बात उचित अवसर आने पर ही होगी। भगवान् को यह संकेत करते जरा-सी भी देर न हुई थी कि अर्जुन ने जब फिर से पीछे की ओर मुड़कर देखा तो उसे सब बातें पूर्ववत् ज्यों-की-त्यों दिखायी पड़ीं। तब उसने श्रीकृष्ण से कहा-“हे देव! आप इस विश्व के नाटक के सूत्रधार हैं। मैं देख रहा हूँ कि यह सम्पूर्ण जगत् फिर अपनी पूर्व स्थिति में पहुँच गया है; परन्तु हे श्रीहरि! इस समय मुझे आपकी इस कीर्ति का भी स्मरण हो रहा है कि दुःखरूपी समुद्र में गोते खाने वाले जगत् का उद्धार करने वाले भी आप ही हैं और समय-समय पर इस कीर्ति का स्मरण होने से जिस अपार सुख की अनुभूति होती है उसी सुखामृत की लहरों पर मैं इस समय लहरा रहा हूँ। हे देव! जीवन धारण करने के कारण ही यह जगत आप पर प्रीति रखता है तथा दुष्टों का अधिक से अधिक संहार होता है। हे हृषीकेश! आप इस त्रिभुवन के दुष्ट राक्षसों को अत्यन्त भंयकर जान पड़ते हैं और इसीलिये आप दसों दिशाओं के भी बाहर भाग जाना चाहते हैं और यहाँ आस-पास, हे महाराज! सुर, सिद्ध, किन्नर किंबहुना, यह चराचर आपके दर्शन से आह्लादित होकर आपको नमन कर रहा है।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (491-506)
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