श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग
ज्ञानदेव कहते हैं कि हे श्रोतागण! इस प्रकार की यह पूरी कथा संजय उस अपूर्ण मनोरथ कौरव पति धृतराष्ट्र को सुना रहा है। जैसे सत्यलोक से निकली हुई गंगा प्रचण्ड घोष से धड़धड़ाती हुई नीचे आयी थी, वैसे ही गम्भीर वाणी से जब भगवान् ने अर्जुन से यह कहा अथवा जैसे भयंकर मेघों के समूह एकदम से सिर पर आकर गड़गड़ाने लगते हैं अथवा जिस समय मन्दर गिरि से क्षीरसिन्धु का मन्थन किया गया था, उस समय उस मथानी को मथने से जैसा भीषण शब्द हुआ होगा, उसी प्रकार की गम्भीर वाणी में जब विश्वकन्द अनन्त स्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण ने इन वाक्यों का उच्चारण किया, उस समय प्रभु के शब्द अर्जुन को कुछ यों ही-से सुनायी पड़े और न जाने वे शब्द सुनने से उसे सुख हुआ अथवा भय जान पड़ा, पर यह ठीक है कि उस समय उसका शरीर थर-थर काँपने लगा। वह इतना झुक गया कि मानो उसके शरीर की पोटली बंध गयी हो और वह उसी दशा में करबद्ध होकर अनेक बार भगवान् के चरणों पर अपना मस्तक रखने लगा। उसी समय उसके मन में विचार आया कि मैं अब कुछ कहूँ; पर उसका गला इतना अवरुद्ध हो गया कि उसके मुख से शब्द ही नहीं निकलता था। अब इसका विचार आप लोग स्वयं ही कर लें कि भगवान् की बातें सुनकर उसे सुख हुआ था अथवा उसके मन में भय उत्पन्न हुआ था। यदि आप यह जानना चाहें कि अर्जुन की उस समय की इस दशा का पता मुझे कैसे चला, तो मैं यह कहूँगा कि इस श्लोक के शब्दों से ही मुझे यह स्पष्ट जान पड़ता है कि श्रीकृष्ण की बातें सुनकर उस समय अर्जुन की ऐसी ही दशा हुई होगी। फिर उसी प्रकार डरते-डरते चरण-वन्दना करके अर्जुन ने कहा-“हे महाराज! आपने अभी यह कहा है कि[1]- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (482-490)
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