ज्ञानेश्वरी पृ. 373

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग


आख्याहि मे को भवानुग्ररूपोनमोऽस्तु ते देववर प्रसीद ।
विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यंन हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम् ॥31॥

“हे वेदों के जानने योग्य, त्रिभुवन के आदिकारण, विश्ववन्द्य! एक बार मेरी विनम्र प्रार्थना तो सुनिये।” यह कहकर उस वीर शिरोमणि अर्जुन ने भगवान् के चरणों पर अपना मस्तक रख दिया और तब फिर कहना प्रारम्भ किया-“हे सर्वेश्वर! आप जरा इधर ध्यान दें। मैंने तो सिर्फ अपना समाधान करने के लिये आपसे विनम्र प्रार्थना किया था कि मुझे अपना विश्वरूप दिखलाइये और आप तो ये तीनों लोक बिल्कुल निगलने ही लग गये। ऐसी स्थिति में मैं यह जानना चाहता हूँ कि आप कौन हैं? आपने ये अनगिनत भयंकर मुख किसलिये निकाले हैं और अपने सब हाथों में आपने ये सब शस्त्र किसलिये धारण किये हुए हैं? आप तो विस्तृत होते-होते इतने फैल गये हैं कि गगन भी अब आपके सम्मुख बहुत छोटा मालूम पड़ता है। आप ये भयानक आँखें फैलाकर मुझे डरा क्यों रहे हैं? हे देव! आपने इस समय सबका भक्षण करने वाले कृतान्त (यम) के साथ प्रतिस्पर्धा करना क्यों शुरू कर दिया है? अपना अभिप्राय मुझे साफ-साफ बतलावें।” इस पर अनन्त भगवान् ने कहा-“यदि तुम यह पूछते हो कि मैं कौन हूँ और ऐसा उग्ररूप धारण करके क्यों इतना बढ़ता चला जा रहा हूँ।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (444-450)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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