श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग
“हे वेदों के जानने योग्य, त्रिभुवन के आदिकारण, विश्ववन्द्य! एक बार मेरी विनम्र प्रार्थना तो सुनिये।” यह कहकर उस वीर शिरोमणि अर्जुन ने भगवान् के चरणों पर अपना मस्तक रख दिया और तब फिर कहना प्रारम्भ किया-“हे सर्वेश्वर! आप जरा इधर ध्यान दें। मैंने तो सिर्फ अपना समाधान करने के लिये आपसे विनम्र प्रार्थना किया था कि मुझे अपना विश्वरूप दिखलाइये और आप तो ये तीनों लोक बिल्कुल निगलने ही लग गये। ऐसी स्थिति में मैं यह जानना चाहता हूँ कि आप कौन हैं? आपने ये अनगिनत भयंकर मुख किसलिये निकाले हैं और अपने सब हाथों में आपने ये सब शस्त्र किसलिये धारण किये हुए हैं? आप तो विस्तृत होते-होते इतने फैल गये हैं कि गगन भी अब आपके सम्मुख बहुत छोटा मालूम पड़ता है। आप ये भयानक आँखें फैलाकर मुझे डरा क्यों रहे हैं? हे देव! आपने इस समय सबका भक्षण करने वाले कृतान्त (यम) के साथ प्रतिस्पर्धा करना क्यों शुरू कर दिया है? अपना अभिप्राय मुझे साफ-साफ बतलावें।” इस पर अनन्त भगवान् ने कहा-“यदि तुम यह पूछते हो कि मैं कौन हूँ और ऐसा उग्ररूप धारण करके क्यों इतना बढ़ता चला जा रहा हूँ।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (444-450)
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