ज्ञानेश्वरी पृ. 371

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग


लेलिह्यसे ग्रसमान: समन्ताल्लोकान्समग्रान्वदनैर्ज्वलद्भि: ।
तेजोभिरापूर्य जगत्समग्रंभासस्तवोग्रा: प्रतपन्ति विष्णो ॥30॥

किन्तु इतना खाने पर भी इसकी भूख जरा-सा भी कम नहीं होती, प्रत्युत उनमें कुछ तीव्रता ही आ जाती है। जैसे कोई रुग्ण व्यक्ति ज्वर से मुक्त होने पर अथवा कोई भिक्षुक अकाल पड़ने पर अपने होंठ चाटता है, वैसे ही यह लपलपाती हुई जिह्वा भी होंठ चाटती हुई प्रतीत होती है। फिर इस मुख के विषय में एक और बात है। कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो इस मुख के लिये अखाद्य हो-जो कुछ इसके सम्मुख उपस्थित होता है, उन सबको यह निगल जाता है, यह भूख भी व्यक्ति को एकदम अचम्भित करने वाली और बहुत ही अनोखी है। हे देव! आपके इस स्वरूप का कुछ ऐसा स्वाभाविक भूखापन दिखायी देता है कि मानो आप हमेशा यही सोचते रहते हैं कि इस समुद्र को एक घूँट में पी जाऊँ अथवा इस पर्वत को एक ही ग्रास में चबा जाऊँ अथवा इस ब्रह्माण्ड को ही अपनी दाढ़ के नीचे रख लूँ अथवा दसों दिशाओं को ही ग्रस लूँ अथवा इन तारों को ही निगल जाऊँ। जैसे विषयों के भोग से काम की और भी वृद्धि होती है अथवा ईंधन डालने से अग्नि और भी अधिक भड़कती है, वैसे ही निरन्तर खाते रहने से इस मुख की भूख उत्तरोत्तर बढ़ती हुई दिखायी देती है। इनमें से एक ही मुख को देखिये कि वह किस प्रकार खुला हुआ है। इसमें की जिह्वा पर पड़ा हुआ तीनों लोक बड़वानल में पड़े हुए कैथ की तरह जान पड़ता है। इस स्वरूप में ऐसे अनगिनत मुख हैं और यद्यपि इन सबके लिये यथेष्ट आहार मिलना सम्भव नहीं है, पर फिर भी कौन जाने, इनकी संख्या इतनी अधिक बढ़ी हुई क्यों है?

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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