श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग
ऐसा प्रतीत होता है कि महामृत्यु के दल घनघोर अन्धकार में छिपे हुए बैठे हैं। हे देव! ऐसा डरावना स्वाँग बनाकर आप कौन-सा अभीष्ट कार्य सिद्ध करना चाहते हैं? और तो कुछ मेरी समझ में नहीं आता, पर यह बात एकदम ठीक है कि मुझे अपनी मृत्यु का अवश्य भय हो रहा है। महाराज! आपके विश्वरूप को देखने की जो मैंने इच्छा की थी उसका यथेष्ट फल मुझे प्राप्त हो गया। हे स्वामी! मैं आपका रूप देख चुका और अब मेरी आँखें भी पूर्णतया तृप्त हो गयी हैं; अब यह जड़-शरीर रहे अथवा चली जाय तो मुझे इससे कोई हानि नहीं है; पर अब तो मुझे यही चिन्ता सता रही है कि मेरा यह चैतन्य भी बचता है अथवा नहीं और यदि यह चीज न हो तथा डर से सिर्फ शरीर ही काँपे, पलभर के लिये मन भी अधिक संतप्त हो अथवा बुद्धि भी कदाचित् कुछ क्षण के लिये भयग्रस्त हो जाय अथवा अभिमान भी विलगित हो जाय, पर इन सबसे भी और जो केवल आनन्द की मूर्ति ही है वह मेरी निश्चल अन्तरात्मा भी आज काँप उठी है। इस साक्षात्कार का बड़ा ही प्रताप है! मेरा सारा बोध आज जाता रहा। यह गुरु-शिष्य वाला सम्बन्ध भी किस प्रकार बना रह सकेगा? हे देव! आपके इस स्वरूप के दर्शन से मेरे अन्तःकरण में जिस दुर्बलता का उदय हुआ है, उसे सँभालने के लिये मैं उस पर धैर्य का यदि आवरण डालना चाहता हूँ तो मुझे ऐसा भान होता है कि मेरा सारा धैर्य ही समाप्त हो गया है, क्योंकि उस धैर्य को भी आपके इस विश्वरूप के दर्शन हो गये हैं। पर जो हो; फिर भी मुझे एक बहुत सुन्दर उपदेश अवश्य प्राप्त हुआ है कि जीव विश्राम पाने की अभिलाषा से यहाँ-वहाँ भटकता-फिरता है, पर उस बेचारे को यहाँ आकर कोई थाह ही नहीं मिलती। इस प्रकार हे महाराज! इस विश्वरूप की महामारी से इस चराचर का जीवन नष्ट हो गया है। हे प्रभु! यदि मैं इन सब बातों को न कहूँ तो मैं शान्त कैसे रह सकता हूँ?[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (353-374)
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