ज्ञानेश्वरी पृ. 362

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग


रूपं महत्ते बहुवक्त्रनेत्रं महाबाहो बहुबाहूरूपादम् ।
बहूदरं बहुदंष्ट्राकरालं दृष्ट्वा लोका: प्रव्यथितास्तथाहम् ॥23॥

हे महाराज! आज इनके आँखों का भाग्योदय हुआ है और मन के लिये सुख का सुसमय उदित हुआ है; क्योंकि इन्होंने आज आपके अगाध विश्वरूप के दर्शन किये हैं। तीनों भुवनों को व्याप्त करने वाला आपके इस रूप का दर्शन कर देवता लोग भी चौक पड़ते हैं; पर आज उस स्वरूप के दर्शनों का सौभाग्य एक अधम को भी मिल रहा है। इस प्रकार का यह रूप एक ही है, पर अनेक प्रकार के विचित्र और भयानक मुखों अनेक नेत्रों, सशस्त्र अनगिनत हाथों, अनगिनत जाँघों, अनगिनत भुजदण्डों तथा चरणों अनेक उदरों तथा वर्णों से युक्त यह स्वरूप है। हर एक मुख में कैसा आवेश भरा हुआ है! मानो विश्वप्रलय के अन्त में संतप्त यम ने इधर-उधर प्रलयाग्नि की अँगीठियाँ जला रखी हैं अथवा ये संसार का संहार करने वाले भगवान् शिव के यंत्र हैं अथवा प्रलय उपस्थित करने वाले भैरवों की टोलियाँ अथवा ऐसे पात्र हैं जिनमें भूतमात्र की खिचड़ी पकाने की शक्ति है बस, हे देव! ठीक इसी प्रकार आपके प्रचण्ड मुख चतुर्दिक् दृष्टिगोचर हो रहे हैं; जैसे कोई विशालकाय सिंह गुफा में न समाता हो और उसकी कोपमुद्रा गुफा के बहुत कुछ बाहर दृष्टिगत होती है, वैसे ही आपके भयंकर दाँत मुख के बाहर निकले हुए दिखायी देते हैं। जैसे घनघोर रात्रि का सहारा लेकर घात करने वाले पिशाच बड़े आनन्द से बाहर निकलते हैं, वैसे ही प्रलय के नाश के रक्त से लथपथ आपकी दाढ़ें मुख से बाहर निकल रही हैं। सिर्फ यही नहीं, आपके मुख पर भयंकरता इस प्रकार दृष्टिगोचर हो रही है कि मानो काल ने युद्ध को आमंत्रित किया हो अथवा प्रलय ने मृत्यु का पोषण किया हो। इस बेचारी लोक-सृष्टि पर जब आपकी थोड़ी-सी भी दृष्टि पड़ जाती है, तब वह वैसे ही दुःख से संतप्त दिखायी पड़ती है जैसे कालिन्दी के तट पर कालिय-विष से संतप्त वृक्ष दिखायी पड़ते हैं।

आप मानो महामृत्यु के समुद्र हैं और उसमें यह तीनों लोक के जीवन की नौका शोकरूपी बादलों से घिरी हुई और आँधी में पड़ी हुई निरन्तर हिल रही है। हे प्रभु! यदि इस पर भी आप रुष्ट होकर यह कहें कि तुम्हें इन लोगों के लिये इतनी चिन्ता करने की क्या जरूरत है? तुम सानन्द इस विश्वरूप के दर्शन का सुख भोगो। तो हे महाराज! इसके उत्तर में मेरी प्रार्थना है कि मैंने इन लोगों की कहानी की ढाल निरर्थक ही बीच में रख ली है। यदि आप पूछें कि मैंने ऐसा क्यों किया है, तो इसका एकमात्र कारण यह है कि मारे भय के स्वयं मेरे ही प्राण थर-थर काँप रहे हैं। यह ठीक है कि मुझसे प्रलयंकारी रुद्र भी भय खाता है तथा यम भी मुझसे भयभीत होकर छिप जाता है; पर वही मैं इस समय थर-थर काँप रहा हूँ। इस समय आपने मेरी ऐसी ही स्थिति कर दी है; परन्तु हे तात! यह रूप एक विचित्र महामारी है। इसका नाम विश्वरूप भले ही हो, पर इसने अपनी भयंकरता से स्वयं भय को भी हार मनवा दी है।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (338-352)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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