ज्ञानेश्वरी पृ. 36

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-2
सांख्य योग

बस, इन्हीं सब बातों को सोच-विचारकर ही मैंने यह कहा है कि वह अर्जुन महामोहरूपी कालसर्प के द्वारा ग्रस लिया गया था। फिर उस समय वह अर्जुन वैसे ही भ्रम से ग्रसा हुआ था, जैसे बादलों से सूर्य आच्छादित हो जाता है। किंवा अर्जुन दुःख से वैसे ही जर्जर हो गया था, जैसे ग्रीष्म काल में कोई पहाड़ आग लगने से एकदम झुलस जाता है। इसीलिये उसे शमन करने की भावना से श्रीगोपालरूपी महामेघ, जो स्वभावतः श्याम हैं और कृपासुधा से ओत-प्रोत हैं, बड़े वेग से उसकी तरफ आ पहुँचे। इस महामेघ में जो सुन्दर दन्तप्रभा थी, वही मानो उस महामेघ की चमकने वाली बजली थी और उनकी गम्भीर वाणी ही उस महामेघ की गर्जना की भाँति प्रतीत होती थी।

श्रीनिवृत्ति नाथ का दास ज्ञानदेव कहता है कि अब उस करुणारूपी महामेघ ने किस तरह उदारभाव से अपनी करुणा की वृष्टि की और उस वृष्टि से अर्जुनरूपी दग्ध पहाड़ किस प्रकार शान्त हुआ और उसमें किस प्रकार फिर से ज्ञानांकुरण हुआ, इसकी पावन कथा आप सब लोग ध्यानमग्न होकर सुनें।[1]

संजय उवाच
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेश: परंतप ।
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ॥9॥

इसके उपरान्त संजय ने महाराज धृतराष्ट्र से कहा कि वह पार्थ फिर शोक से व्याकुल होकर कहने लगा-“हे श्रीकृष्ण! आप कृपा करके मेरी बातें एक बार फिर सुनें। हे देव! आप मुझे बार-बार समझाने-बुझाने के चक्कर में न पड़े।; क्योंकि मैं बहुत ही सोच-समझकर इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि किसी भी कीमत पर मुझे युद्ध के झंझट में नहीं पड़ना है।” इतनी बात झट से कहकर उसने चुप्पी साध ली। उसकी यह दशा देखकर भगवान् श्रीकृष्ण विस्मय में पड़ गये।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (64-80)
  2. (81-83)

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श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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