श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग
हे देव! श्रुति जिसे तलाशती है, वह अक्षर और ओंकार की साढे़ तीन मात्राओं के परे आप ही हैं। जो समस्त आकारों का मूल है और जिसमें सारा संसार समाविष्ट है; वह अव्यय गूढ़ और अविनाशी तत्त्व आप ही हैं। आप ही धर्म के जीवन हैं, आप ही अनादि-सिद्ध हैं, नित्य नूतन हैं। आप ही सैंतीसवें तत्त्व हैं और समझता हूँ कि हे विश्वेश! आप ही पुराण पुरुष भी हैं। आप आदि, मध्य और अन्त से रहित हैं, आप स्वयं सिद्ध और अपार हैं और आपकी भुजाएँ तथा चरण विश्वव्यापी हैं। चन्द्र और सूर्यरूपी नेत्रों से आप प्रसाद और कोप की लीला बराबर दिखाते रहते हैं। आप किसी पर तमोरूपी नेत्रों से देखते हुए उस पर कोप करते हैं और किसी पर अपनी कृपा दृष्टि बनाये रखते हैं। हे प्रभु! आपका इस प्रकार का स्वरूप अच्छी तरह से मैं ही देख रहा हूँ। आपका यह मुख प्रलयाग्नि की भाँति दिखायी दे रहा है। पर्वतों पर फैलने वाली दावाग्नि में से जिस प्रकार वस्तुमात्र को भस्म करती हुई ज्वाला की लपटें निकलती हैं; उसी प्रकार आपकी जिह्वा दाढ़ों को चाटती हुई दाँतों में लपलपा रही है। इस मुख के दाह और सर्वांग के तेज से यह सम्पूर्ण विश्व तप कर अत्यन्त क्षुब्ध हो रहा है।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (307-314)
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