ज्ञानेश्वरी पृ. 359

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग


त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् ।
त्वमव्यय: शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे ॥18॥
अनादिमध्यान्तमनत्नवीर्य मनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम् ।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रं स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम् ॥19॥

हे देव! श्रुति जिसे तलाशती है, वह अक्षर और ओंकार की साढे़ तीन मात्राओं के परे आप ही हैं। जो समस्त आकारों का मूल है और जिसमें सारा संसार समाविष्ट है; वह अव्यय गूढ़ और अविनाशी तत्त्व आप ही हैं। आप ही धर्म के जीवन हैं, आप ही अनादि-सिद्ध हैं, नित्य नूतन हैं। आप ही सैंतीसवें तत्त्व हैं और समझता हूँ कि हे विश्वेश! आप ही पुराण पुरुष भी हैं। आप आदि, मध्य और अन्त से रहित हैं, आप स्वयं सिद्ध और अपार हैं और आपकी भुजाएँ तथा चरण विश्वव्यापी हैं। चन्द्र और सूर्यरूपी नेत्रों से आप प्रसाद और कोप की लीला बराबर दिखाते रहते हैं। आप किसी पर तमोरूपी नेत्रों से देखते हुए उस पर कोप करते हैं और किसी पर अपनी कृपा दृष्टि बनाये रखते हैं। हे प्रभु! आपका इस प्रकार का स्वरूप अच्छी तरह से मैं ही देख रहा हूँ। आपका यह मुख प्रलयाग्नि की भाँति दिखायी दे रहा है। पर्वतों पर फैलने वाली दावाग्नि में से जिस प्रकार वस्तुमात्र को भस्म करती हुई ज्वाला की लपटें निकलती हैं; उसी प्रकार आपकी जिह्वा दाढ़ों को चाटती हुई दाँतों में लपलपा रही है। इस मुख के दाह और सर्वांग के तेज से यह सम्पूर्ण विश्व तप कर अत्यन्त क्षुब्ध हो रहा है।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (307-314)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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