श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-11
विश्वरूप दर्शनयोग
अर्जुन ने कहा-“हे स्वामिन्। मैं आपका जय-जयकार करता हूँ। सचमुच आपने मुझ पर विलक्षण कृपा की है, क्योंकि उसी कृपा के कारण आज मुझ-जैसे साधारण व्यक्ति को भी यह अद्भुत विश्वरूप देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। पर हे गोस्वामिन्! आपने यह बहुत ही अच्छा काम किया है और मुझे भी इससे अत्यन्त संतोष हुआ है, क्योंकि आज मुझे यह बात प्रत्यक्षतः दिखायी पड़ी है कि आप ही इस सृष्टि के आधार हैं। हे देव! जैसे मन्दरगिरि के पठार पर सर्वत्र जंगली पशुओं के दल इकट्ठे रहते हैं, वैसे ही चतुर्दश भुवनों के अनेक संघ आपके शरीर पर झूलते हुए दृष्टिगत होते हैं। विस्तृत आकाश में जैसे तारागण रहते हैं अथवा किसी विशाल वृक्ष में जैसे अनेक पक्षियों के घोंसले झूलते रहते हैं, वैसे ही हे श्रीहरि! आपके इस विश्वमय शरीर में स्वर्ग और उसमें रहनेवाले देवगण मुझे दृष्टिगोचर हो रहे हैं। हे प्रभु, इस शरीर में महाभूतों के अनेक पंचक और भूत-सृष्टि का प्रत्येक भूतसमूह मुझे दृष्टिगत हो रहा है। हे स्वामी! आपके पूरे शरीर में सत्यलोक प्रतिष्ठित है; फिर भला यह कैसे सम्भव है कि उसमें दृष्टिगत होने वाले ब्रह्मदेव न हों? यदि दूसरी तरफ दृष्टि दौड़ायी जाय तो कैलाश भी दिखायी देता है। हे देव! आपके शरीर के एक अंश में भवानीसहित श्रीमहादेव भी दिखायी पड़ते हैं। सिर्फ यही नहीं, हे हृषीकेश स्वयं आप भी अपने इस विश्वरूप में दिखायी देते हैं। इसमें कश्यप इत्यादि ऋषिगण और नाग समुदाय के सहित पाताल भी दिखायी देता है। किंबहुना, हे त्रैलोक्यपति! आपके रूप के एक-एक अवयव की भीति पर चतुर्दश भुवनों के चित्र अंकित दिखायी देते हैं। इन भुवनों के जो-जो लोक है‚ वे सभी इसमें चित्रित दिखायी देते हैं। इस प्रकार आपके अगाध महत्त्व की अलौकिकता आज मुझे दृष्टिगोचर हो रही है।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (255-265)
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |