ज्ञानेश्वरी पृ. 354

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-11
विश्वरूप दर्शनयोग


तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा ।
अपश्यद्‌देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा ॥13॥

उसी विश्वरूप के एक कोण में यह समस्त जगत् अपने पूरे विस्तार के साथ उसी प्रकार पड़ा हुआ था, जिस प्रकार महोदधि में भिन्न-भिन्न बुलबुले दृष्टिगत होते हैं अथवा आकाश में गन्धर्व नगर होते हैं अथवा भूतल पर चींटियों के बने हुए घर होते हैं अथवा मेरुगिरि पर बहुत-से परमाणु रहते हैं। बस ठीक इसी प्रकार सारा संसार उन देवाधि देव शरीर में उस समय अर्जुन देख रहा था।[1]


तत: स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनंजय: ।
प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषत ॥14॥

धनंजय के अन्तःकरण में उस समय तक जो इस प्रकार का किंचित् भेदभाव अवशिष्ट था कि यह विश्व एक अलग वस्तु है और मैं उससे पृथक् अन्य वस्तु हूँ, सो वह भेदभाव भी अब समाप्त हो गया तथा उसका अन्तःकरण एकदम द्रीवत हो गया। अर्जुन के अन्दर आनन्द का संचार हुआ और बाह्य शरीर के अवयवों की शक्ति तुरन्त विनष्ट हो गयी तथा आपादमस्तक रोमांच हो आया। जैसे वर्षा काल के पहले झोंके में जल बह जाने के बाद पर्वत के सारे हिस्से कोमल तृणांकुरों से व्याप्त हो जाते हैं, वैसे ही अर्जुन के पूरे शरीर पर रोमांच के अंकुर निकल आये। जैसे चन्द्रमा की रश्मियों का स्पर्श होते ही सोमकान्त मणि द्रवित होती है, वैसे ही उसके शरीर में स्वेद-बिन्दु भर आये। कमल के कोश में आबद्ध भ्रमर के हिलने-डुलने से जैसे कमल-कलिका जल पर हिलने लगती है, अन्तःकरण में सुख की तरंगें उठने के कारण बाहर से उसका शरीर भी वैसे ही कम्पन करने लगा। जैसे कपूर-कदली के दल खोलने पर उसमें स्थित कपूर के कर्ण निकलकर गिरने लगते हैं, वैसे ही अर्जुन के नेत्रों से अश्रुबिन्दु टपकने लगे। चन्द्रोदय होने पर जैसे लबालब भरा हुआ समुद्र और भी अधिक भर जाता है, वैसे ही अर्जुन भी आनन्द की तरंगों से और भी अधिक भर गया। इस प्रकार आठों सात्त्विक भाव मानो आपस में प्रतिद्वंद्विता करते हुए अर्जुन के अंगों में समा गये जिससे उसके जीव को ब्रह्मानन्द का राज्य प्राप्त हो गया; किन्तु इस प्रकार के आत्मानन्द के अनुभव के बाद भी उसकी दृष्टि में द्वैतभाव का अस्तित्व बना ही रहा। यही कारण है कि पार्थ ने एक ठण्डी साँस लेकर यहाँ-वहाँ देखा और जिधर भगवान् विराजमान थे, उधर ही उसने उनको सिर झुकाकर नमन किया और फिर हाथ जोड़कर उसने कहना शुरू किया।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (242-244)
  2. (242-254‌)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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