ज्ञानेश्वरी पृ. 338

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

Prev.png

अध्याय-11
विश्वरूप दर्शनयोग


मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो ।
योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम् ॥4॥

परन्तु हे शांर्गी! इस विषय में एक शंका है। यह बात मैं स्वयं नहीं जानता कि आपके विश्वरूप का दर्शन करने की योग्यता मुझमें है अथवा नहीं। हे देव! यदि आप यह पूछें कि यह बात तुम क्यों नहीं जानते, तो मैं आपसे पूछता हूँ कि क्या कोई रोगी स्वयं ही अपने रोग का निदान कर सकता है? और मेरी उत्कण्ठा इतनी प्रबल है कि उसके सामने मैं यह बात भी भूल जाता हूँ कि इस उत्कण्ठा के अनुरूप मुझमें योग्यता भी है अथवा नहीं। जैसे किसी पिपासित व्यक्ति के समक्ष स्वयं समुद्र भी उपस्थित कर दिया जाय तो भी वह कभी ‘बस’ नहीं कहता, वैसे ही इस प्रबल उत्कण्ठा के चक्कर में मैं अपने-आपको सँभाल नहीं सकता। इसीलिये जैसे सिर्फ माता ही जानती है कि मेरे बालक में कितनी योग्यता है, वैसे ही हे जनार्दन! आप ही मेरी योग्यता का आकलन करें और मुझे विश्वरूप के दर्शन कराना आरम्भ करें।

हे देव! आप इतनी कृपा अवश्य करें; अन्यथा यही कह दें कि तुम्हारी यह उत्कण्ठा पूरी नहीं हो सकती। यदि किसी बधिर व्यक्ति के समक्ष व्यर्थ ही संगीत के पंचम स्वर का गान किया जाय तो भला उसे क्या सुख मिल सकता है? क्या सिर्फ चातक की प्यास शमन करने के व्याज से ही मेघ सारे जगत् के लिये यथेष्ट वृष्टि नहीं करता? पर यदि वह वृष्टि भी किसी चट्टान पर हो तो वह व्यर्थ ही जाती है। यह बात नहीं है कि चन्द्रमा सिर्फ उतनी ही चाँदनी का विस्तार करता हो जितनी चक्रवाक पक्षी के लिये परमावश्यक होती है। और अन्यों को उससे वंचित ही रखता हो। परन्तु यदि कोई दृष्टिहीन हो तो उसके लिये चन्द्रमा का वह प्रकाश व्यर्थ होता है। यही कारण है कि मेरे चित्त में इस बात का भरपूर भरोसा है कि आप मुझे अपने विश्वरूप के अवश्य दर्शन देंगे। क्योंकि ज्ञानी और अज्ञानी सभी के लिये आपका स्वरूप सदा अद्भुत और दिव्य ही है।

Next.png

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः