श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-11
विश्वरूप दर्शनयोग
इस गीता की भी कैसी महिमा है! वेदों के जो प्रतिपाद्य देवता श्रीकृष्ण हैं, वही इस ग्रन्थ के वक्ता हैं। इसका अर्थ-गौरव इतना अधिक है कि स्वयं शकर भी उसका आकलन नहीं कर सकते। अत: जीवभाव से उनकी वन्दना करना ही समीचीन है। अब आप लोग यह मनोयोगपूर्वक सुनें कि वह अर्जुन भगवान् के विश्वरूप पर ध्यान रखकर क्या कहने लगा। उसके मन में इस बात की बहुत बड़ी लालसा थी कि मेरे मन में इस सिद्धान्त पर जो अटल विश्वास हो गया है कि सम्पूर्ण जगत् ही परमेश्वर है, उसे मैं अपने चक्षुओं से भी देखूँ और इस प्रकार बाहर से भी इस सिद्धान्त पर मेरा पूरा-पूरा विश्वास हो जाय। परन्तु अपने मन की यह लालसा भगवान् पर प्रकट करना अत्यन्त ही दुष्कर था, क्योंकि वह सोचता था कि विश्वरूप-सरीखे गूढ़ रहस्य के विषय में मैं खुलकर कैसे प्रश्न करूँ। अर्जुन अपने अन्तःकरण में सोचने लगा कि जो बात आज तक भगवान् के किसी प्रिय भक्त ने कभी नहीं पूछी, वह बात मैं एकदम से कैसे पूछ बैठूँ? यह बात पूर्णतया ठीक है कि मैं श्रीकृष्ण का अत्यन्त ही प्रिय मित्र हूँ, पर क्या कभी मैं लक्ष्मी माता के समान प्रिय हो सकता हूँ? लक्ष्मी माता भी विश्वरूप के विषय में पूछने से डरती थीं। मैंने चाहे इनकी कितनी ही सेवा क्यों न की हो, पर फिर भी गरुड़ ने जो इनकी सेवा की है, क्या मेरी सेवा उसकी बराबरी कर सकती है? परन्तु वह भी कभी इनसे विश्वरूप के बारे में कुछ नहीं पूछता। क्या मैं सनक इत्यादि की अपेक्षा भी इनका अधिक निकटवर्ती हूँ? परन्तु वे सनक इत्यादि भी कभी विश्वरूप दर्शन का पागलपन वाला आग्रह नहीं करते। क्या में श्रीकृष्ण के लिये गोकुलवासियों से भी बढ़कर प्रिय हूँ। पर उन लोगों को भी भगवान् ने केवल अपनी बाल-सुलभ क्रीड़ा से ही प्रसन्न किया था। |
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