श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-10
विभूति योग
चींटी से लेकर ब्रह्मापर्यन्त सबका नियमन करने वाला जो दण्ड है, समस्त शासकों में वह दण्ड मैं ही हूँ। सार और असार का निर्णय करने वाला और धर्मज्ञान का पक्ष लेने वाला सम्पूर्ण शास्त्रों में जो नीतिशास्त्र है, वह भी मैं ही हूँ। हे सुहृद् अर्जुन! समस्त गूढ़ों में मैं मौन हूँ, क्योंकि मौन रहने वाले के सम्मुख ब्रह्मदेव की भी कुछ नहीं चलती। ज्ञानियों में जो ज्ञान रहता है, वह भी मैं ही हूँ। पर इन विभूतियों का कहाँ तक विवेचन किया जाय! इनका कहीं अवसान ही नहीं है।
हे धनुर्धर! वर्षा के धारों की गणना की जा सकती है अथवा पृथ्वी पर के तृणों और अंकुरों को भी गिना जा सकता है, पर जैसे महासागर के तरंगों को नहीं गिना जा सकता है वैसे ही मेरी प्रमुख विभूतियों की भी कोई सीमा नहीं है। इनमें से जो पाँच-सात मुख्य विभूतियाँ मैंने तुम्हें बतलायी हैं, हे अर्जुन! वे सब तो सिर्फ तुम्हें परिचय कराने के लिये ही हैं। मेरी अवशिष्ट विभूतियों के विस्तार की कोई सीमा ही नहीं है; अत: तुम सुनोगे क्या और मैं बतलाऊँगा क्या? इसलिये अब मैं तुम्हें अपना पूरा मर्म ही बतला देता हूँ। इन जीवरूपी अंकुरों में जिस बीज का विस्तार होता है, वह बीज मैं ही हूँ, अत: किसी को कभी छोटा अथवा बड़ा नहीं कहना चाहिये, ऊँच-नीच का भेदभाव त्याग देना चाहिये और यह भली-भाँति समझ लेना चाहिये कि जितनी वस्तुएँ हैं, वे सब मेरी ही विभूति हैं। तो भी सुनो, मैं अब तुम्हें एक साधारण चिह्न बतला देता हूँ, हे अर्जुन, उसी चिह्न के माध्यम से तुम मेरी विभूतियों को जान सकोगे।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (300-306)
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