ज्ञानेश्वरी पृ. 318

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-10
विभूति योग


अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थित: ।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ॥20॥

मस्तक पर सुन्दर काले केश धारण करने वाले और धनुर्विद्या में दूसरे शंकर है, हे पार्थ, सुनो। मैं प्राणिमात्र में आत्मरूप से निवास करता हूँ। प्राणियों के अन्तःकरण में भी मैं ही निवास करता हूँ और उनके बाह्यस्वरूप पर भी मेरा ही आवरण है। उनका आदि, मध्य और अन्त सब कुछ मैं ही हूँ। जैसे मेघों के नीचे-ऊपर, अन्दर-बाहर सर्वत्र आकाश-ही-आकाश रहता है, वे आकाशरूप ही होते हैं और उनका आधार भी आकाश ही होता है और जब वे विलीन होते हैं, तब भी वे आकाशरूप होकर रहते हैं, वैसे ही समस्त प्राणियों की उत्पत्ति, स्थिति तथा गति सब कुछ मैं ही हूँ। इस प्रकार विभूतियों के द्वारा मैं नाना प्रकार का और व्यापक हूँ। इसलिये तुम अपनी समस्त चैतन्य-शक्ति को अपनी श्रवणेन्द्रियों में एकत्र करके सुनो। अब हे सुभद्रापति, जिन विभूतियों का वर्णन करने के लिये मैंने तुम्हें वचन दिया है, उनमें से मुख्य-मुख्य विभूतियाँ सुनो।”[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (215-220)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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