श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-10
विभूति योग
हे महाराज, आपका नाम ही मुझे अत्यन्त मधुर जान पड़ता है। तिस पर आपकी प्रत्यक्ष भेंट हुई है और आपकी निकटता का भी लाभ है। इसके अलावा आपकी मेरे साथ आनन्दपूर्वक बातचीत भी होती है। ऐसी दशा में, हे प्रभु, मैं क्या बतलाऊँ कि यह परम सुख कैसा है। मेरे हृदय को इतनी अधिक सन्तुष्टि मिली है कि वाणी से उसका वर्णन ही नहीं किया जा सकता। परन्तु हाँ, इतना अवश्य मेरी समझ में आता है कि आपके मुखारविन्द से इस परमामृत की पुनरावृत्ति होनी चाहिये। प्रतिदिन वही सूर्य उदय होता है, पर फिर भी क्या कभी कोई उसके बारे में यह कहता है कि यह तो वही कल वाला बासी सूर्य है! सभी लोगों को पावन करने वाली अग्नि के बारे में कभी यह कहा जा सकता है कि यह अपावन हो गयी है; अथवा प्रवहमान गंगाजल के बारे में कभी यह कहा जा सकता है कि यह बासी हो गया है? जिस समय आपने अपने मुखारविन्द से परमामृत वचन का लाभ कराया, उस समय मुझे ऐसा मालूम पड़ा कि आज शब्द-ब्रह्म ने स्वयं ही मूर्तिमान् होकर अवतार लिया है। अथवा चन्दन के पेड़ में फूल भी लगे हैं और मैं उन फूलों का आनन्द ले रहा हूँ।” पार्थ की बातें सुनकर श्रीकृष्ण के सर्वांग समाधानजन्य प्रेम से हिलने लगे। वे अपने मन में कहने लगे कि यह अर्जुन अब भक्ति और ज्ञान का भण्डार बनने के योग्य हो गया है। जिस अर्जुन की योग्यता श्रीकृष्ण ने इस प्रकार स्वीकार की थी, उस अर्जुन के परम सन्तोष के कारण श्रीकृष्ण के प्रेम का प्रवाह उमड़ पड़ा। किन्तु उस प्रेम-प्रवाह को बड़े यत्न से थामकर श्रीअनन्त ने जो कुछ कहा, वह ध्यानपूर्वक सुनिये।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (190-205)
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