ज्ञानेश्वरी पृ. 315

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-10
विभूति योग


विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन ।
भूय: कथय तृप्तिर्हि श्रृण्वतो नास्ति मेऽमृतम् ॥18॥

हे भूतपति, मैंने आपकी जिन विभूतियों के बारे में पूछा है, कृपापूर्वक उन विभूतियों का वर्णन करें। इस पर शायद आप यह कहें कि एक बार तो उन विभूतियों के सम्बन्ध में मैं तुमको बतला चुका हूँ। इसलिये अब उन्हीं विभूतियों का मैं बार-बार क्यों वर्णन करूँ? तो हे जनादर्न, आप इस शंका को रत्तीभर भी महत्त्व न दें, क्योंकि यदि किसी को जरा-सा भी साधारण अमृत पीने को मिले, तो भी उसके लिये कोई ‘बस करो’, ‘रहने दो’, नहीं कहता; और फिर वह अमृत भी कैसा? जो कालकूट का सहोदर है ओर मृत्यु से भयभीत देवताओं ने अमरत्व प्राप्त करने की लालसा से जिसका पान किया था, परन्तु जिसके पान कर लेने पर भी ब्रह्मा के एक ही दिवस में चतुर्दश इन्द्र]] अमर राजाओं के सिंहासन पर आसीन होते और समाप्त हो जाते हैं-जो अमृत इस प्रकार क्षीरसागर में से निकला हुआ एक साधारण रस है और जिसके विषय में लोगों में यह मिथ्या भ्रान्ति फैली हुई है कि वह अमृत लोगों को अमरत्व प्रदान करने वाला है। जब ऐसे नामधारी अमृत का मधुरांश भी लोगों को यथेष्ट नहीं जान पड़ता और उसे पीने से लोग नहीं तृप्त होते तथा इतनी तुच्छ चीज की मधुरता भी जब इतना अधिक सम्मान पाती है, तब फिर आपके इन बोध-वचनों का तो कहना ही क्या है! ये तो साक्षात् परमामृत ही हैं। इनके लिये न तो मन्दराचल की मथानी बनाकर ही फिराया गया है और न क्षीरसागर को ही मथा गया है। यह तो अनादि और स्वयं सिद्ध है। यह न तो पतला ही है और न गाढ़ा ही; न इसमें रस अथवा गन्ध का ही कहीं नाम है और इसका स्मरण करते ही सहज में हर एक मनुष्य इसे पा सकता है। इस अमृत का वर्णन सुनते ही समस्त संसार तत्त्वहीन हो जाता है और सुनने वाले को ऐसी नित्यता प्राप्त होने लगती है, जिसका कभी अन्त हो ही नहीं सकता। जन्म और मृत्यु की बात बिल्कुल मिट जाती है और बाह्याभ्यन्तर, सर्वत्र आत्मानुभव के महासुख की वृद्धि होने लगती है। अब यदि भाग्यवशात् इस प्रकार का परमामृत सेवन करने के लिये प्राप्त हो जाय तो वह सद्यः जीव को आत्मस्वरूप कर डालता है और वह अमृत जब आप मुझे दे रहे हों, तो यह सम्भव ही नहीं है कि मेरा चित्त उसके लिये कहे--‘बस कीजिये।’


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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