ज्ञानेश्वरी पृ. 313

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-10
विभूति योग


स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम ।
भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते ॥15॥

जैसे आकाश के विस्तार का एकदम सही पता स्वयं आकाश को ही होता है अथवा पृथ्वी की घनता की वास्तविक माप स्वयं पृथ्वी ही कर सकती है, वैसे ही हे लक्ष्मीपति! अपनी अपरम्पार सामर्थ्य का सम्यक् आकलन सिर्फ आप ही कर सकते हैं। अन्य जो वेद इत्यादि हैं, उनकी बुद्धि विषय में व्यर्थ ही यहाँ-वहाँ भटकती फिरती है। भला किसमें ऐसी शक्ति है, जो वेग में मन को भी पछाड़ सके अथवा पवन को अपनी मुट्ठी में बन्द कर सके आदिशून्य (माया) तत्त्व से आगे निकल सके? इसी प्रकार आपका पूर्ण ज्ञान प्राप्त करना भी किसी के वश की बात नहीं है। आपके सम्बन्ध का पूरा-पूरा ज्ञान केवल आपकी कृपा से ही प्राप्त किया जा सकता है। एकमात्र आप ही ऐसे हैं, जो स्वयं को जान सकते हैं और अन्यों को भी आप ही वह ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं! यही कारण है कि मैं भी अब वह ज्ञान पाने के लिये व्यग्र हो रहा हूँ। आप एक बार मुझे वह ज्ञान प्राप्त कराकर मेरे कुतूहल को शान्त कीजिये।

हे देव, आप ही जीवमात्र के आदिकारण हैं, संसार के भ्रमरूपी गज को मारने वाले सिंह आप ही हैं समस्त देवगण आपकी आराधना करते हैं, आप ही जगन्नायक हैं और मैंने सुना है कि यदि आपकी महिमा को देखा जाय तो वह इतना अधिक है कि मुझमें आपके पास खड़े होने की भी योग्यता नहीं है। परन्तु यदि वही विचारकर मैं संकोच करूँ और आत्मज्ञान के बोध के सम्बन्ध में आपसे प्रार्थना करने में डरूँ तो उस बोध की प्राप्ति के लिये मुझे और कोई उपाय ही नहीं सूझता। चतुर्दिक् चाहे कितनी ही अधिक समुद्र और नदियाँ न भरे पड़े रहें, पर चातक की दृष्टि में वे सब जलाशय बेकार ही होते हैं; क्योंकि उसके लिये उपयोगी तो वही जल होता है, जो मेघों से टपकता है। इसी प्रकार, हे प्रभु, गुरु तो सर्वत्र हैं; पर हे श्रीकृष्ण, मेरी गति केवल आप ही हैं। अब आप कृपापूर्वक मुझे अपनी विभूति के बारे में बतलावें।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (176-184)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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