श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-10
विभूति योग
उन भावों में प्रथम स्थान बुद्धि का है। इसके बाद निरवधि ज्ञान, मोहाभाव, सहिष्णुता, क्षमा और सत्य हैं। तत्पश्चात् मनोनिग्रह और इन्द्रिय-नियन्त्रण ये दो चीजें हैं। इसी प्रकार हे अर्जुन! इस संसार में सुख-दुःख और जीवन-मृत्यु भी मेरे ही भावों के अन्तर्गत हैं; और हे पाण्डुसुत! भय और निर्भरता, अहिंसा और समता, सन्तोष तथा तप, दान, यश और अपयश इत्यादि जो भाव प्राणिमात्र में दृष्टिगोचर होते हैं, उनकी उत्पत्ति भी मुझसे हुई है। जैसे समस्त जीव पृथक्-पृथक् हैं, वैसे ही यह भाव भी पृथक्-पृथक् हैं। पर इनमें से कुछ को तो मेरे विषय में ज्ञान होता है और कुछ को नहीं होता। सूर्य के कारण ही प्रकाश और अन्धकार दोनों होते हैं। जिस समय वह अस्ताचल की ओर जाता है, उस समय अन्धकार हो जाता है। इसी प्रकार मेरे स्वरूप का ज्ञान होना अथवा न होना उन प्राणियों के कर्मों के (दैव के) फल के अनुसार होता है। इसी कारण प्राणिमात्र के लिये मेरे भावों का अस्तित्व विषम होता है। इस प्रकार, हे पाण्डु कुँवर, यह समस्त जीव-सृष्टि मेरे भावों में कसकर बँधी हुई है। अब इस सृष्टि का पालन करने वाले और समस्त लोक-व्यवहार को अपने अधीन रखने वाले ग्यारह भाव और भी हैं। अब उनका भी वर्णन ध्यानपूर्वक सुनो।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (83-91)
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