ज्ञानेश्वरी पृ. 304

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

Prev.png

अध्याय-10
विभूति योग


बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोह: क्षमा सत्यं दम: शम: ।
सुखं दु:खं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च ॥4॥
अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयश: ।
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधा: ॥5॥

उन भावों में प्रथम स्थान बुद्धि का है। इसके बाद निरवधि ज्ञान, मोहाभाव, सहिष्णुता, क्षमा और सत्य हैं। तत्पश्चात् मनोनिग्रह और इन्द्रिय-नियन्त्रण ये दो चीजें हैं। इसी प्रकार हे अर्जुन! इस संसार में सुख-दुःख और जीवन-मृत्यु भी मेरे ही भावों के अन्तर्गत हैं; और हे पाण्डुसुत! भय और निर्भरता, अहिंसा और समता, सन्तोष तथा तप, दान, यश और अपयश इत्यादि जो भाव प्राणिमात्र में दृष्टिगोचर होते हैं, उनकी उत्पत्ति भी मुझसे हुई है। जैसे समस्त जीव पृथक्-पृथक् हैं, वैसे ही यह भाव भी पृथक्-पृथक् हैं। पर इनमें से कुछ को तो मेरे विषय में ज्ञान होता है और कुछ को नहीं होता। सूर्य के कारण ही प्रकाश और अन्धकार दोनों होते हैं। जिस समय वह अस्ताचल की ओर जाता है, उस समय अन्धकार हो जाता है। इसी प्रकार मेरे स्वरूप का ज्ञान होना अथवा न होना उन प्राणियों के कर्मों के (दैव के) फल के अनुसार होता है। इसी कारण प्राणिमात्र के लिये मेरे भावों का अस्तित्व विषम होता है। इस प्रकार, हे पाण्डु कुँवर, यह समस्त जीव-सृष्टि मेरे भावों में कसकर बँधी हुई है। अब इस सृष्टि का पालन करने वाले और समस्त लोक-व्यवहार को अपने अधीन रखने वाले ग्यारह भाव और भी हैं। अब उनका भी वर्णन ध्यानपूर्वक सुनो।[1]

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (83-91)

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः