ज्ञानेश्वरी पृ. 302

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-10
विभूति योग


न मे विदु: सुरगणा: प्रभवं न महर्षय: ।
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वश: ॥2॥

मेरे स्वरूप का प्रतिपादन करने में वेदों ने भी चुप्पी साध ली। मन और प्राण भी पंगु हो गये हैं। सूर्य और चन्द्र बिना रात के ही अस्त हो गये हैं अर्थात् ये सब मेरा वर्णन करने में असमर्थ हैं। जैसे माता के उदर में स्थित गर्भ माता का वय नहीं देख सकता, वैसे ही किसी देवता को कभी मेरा ज्ञान नहीं हो सकता। जैसे कोइ जलचर अगाध समुद्र को माप नहीं सकता, अथवा मसक जैसे लाँघकर आकाशमण्डल का विस्तार पार नहीं कर सकता, वैसे ही इन महर्षियों का ज्ञान भी मुझे नहीं जान सकता। मैं कौन हूँ, कितना बड़ा हूँ, किससे उत्पन्न हुआ हूँ, इत्यादि प्रश्नों को निर्णय करते-करते लोगों को अनेक कल्प बीत गये। इसका प्रमुख कारण यही है कि ये जितने देवता, महर्षि और अन्य सारे जीव है, उनका आदि कारण मैं ही हूँ। इसीलिये, हे पाण्डव! मेरे विषय में जानना अत्यन्त कठिन है। यदि नीचे की ओर प्रवाहमान जल फिर उलटकर पर्वत पर चढ़ सकता हो अथवा ऊपर की ओर बढ़ता हुआ वृक्ष यदि फिर अपनी जड़ की ओर लौट सकता हो तो फिर मुझसे उत्पन्न होने वाला यह जगत् भी मुझे जान सकता है। यदि वट-वृक्ष् के सूक्ष्म अंकुर में संपूर्ण वटवृक्ष आवृत्त किया जा सकता हो अथवा जल की तरंगों में सारा समुद्र भरा जा सकता हो अथवा मिट्टी के परमाणु में यह पूरा भूमण्डल समा सकता हो, तभी ये जीवमात्र, महर्षि तथा देवता इत्यादि, जो मुझसे ही उत्पन्न हुए हैं, मुझे जान सकते हैं। किन्तु इतना होने पर भी जो कोई लौकिक प्रवृत्ति की आगे बढ़ाने वाली चाल का परित्याग कर इन्द्रियों की ओर अपनी पीठ कर लेता है अथवा जिसकी प्रवृत्ति की वह आगे वाली चाल जारी रहती है, वह भी यदि पीछे की ओर पलटकर और अपना देह-भाव भूलकर पंचमहाभूतों के शिखर पर चढ़ जाता है।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (64-73)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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