ज्ञानेश्वरी पृ. 293

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग

जिसकी आयु थोड़ी ही शेष रहती है और जिसकी बुद्धि बिल्कुल समाप्त हो जाती है, उसी को लोग बड़ा कहते हैं और उसके पैरों पर सिर रखकर लोटते हैं। जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता है, वैसे-वैसे माता-पिता इत्यादि मारे आनन्द के नाचने लगते हैं; पर इस विषय में उनके मन में जरा-सा भी दुःख नहीं होता कि बच्चे के बढ़ने के साथ-ही-साथ उसके आयुष्य की डोर भी छोटी होती जाती है। जन्म लेते ही व्यक्ति को दिनोंदिन काल के और भी अधिक अधीन होना पड़ता है, तो भी लोग जन्मदिन का उत्सव बड़े धूम-धाम से मनाते हैं और आनन्द की ध्वजा भी फहराते हैं। लोगों को श्रवणेन्द्रियों में मरण का शब्द भी भला नहीं सुनायी पड़ता और जिस समय किसी की मृत्यु हो जाती है, उस समय लोग जोर-जोर से चिल्लाने लगते हैं, परन्तु वे लोग अपनी मूढ़ता के वशीभूत होने के कारण कभी इस बात का विचार भी नहीं करते कि स्वयं हमारी ही आयु दिनोंदिन क्षीण होती चली जा रही है। जिस समय मेढक को सर्प निगलने लगता है, उस समय भी वह मेढक मक्खियों को खाने के लिये अपने मुँह से बलपूर्वक पकड़े रहता है। ठीक इसी प्रकार व्यक्ति भी अपनी तृष्णाएँ निरन्तर बढ़ाता चलता है, पर इससे उसका क्या हित हो सकता है? इस मृत्युलोक की दशा भी कैसे खराब हो रही है! हे अर्जुन! यद्यपि तुमने इस लोक में अपने कर्मों की गति से ही जन्म ग्रहण किया है, पर फिर भी तुम यहाँ से झटपट अलग होकर निकल जाओ और उस मार्ग से चलो, जिस पर चलने से तुम्हें मेरे निर्दोष, अविनाशी पद की प्राप्ति हो सकती है।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (475-516)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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