श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग
जिसकी आयु थोड़ी ही शेष रहती है और जिसकी बुद्धि बिल्कुल समाप्त हो जाती है, उसी को लोग बड़ा कहते हैं और उसके पैरों पर सिर रखकर लोटते हैं। जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता है, वैसे-वैसे माता-पिता इत्यादि मारे आनन्द के नाचने लगते हैं; पर इस विषय में उनके मन में जरा-सा भी दुःख नहीं होता कि बच्चे के बढ़ने के साथ-ही-साथ उसके आयुष्य की डोर भी छोटी होती जाती है। जन्म लेते ही व्यक्ति को दिनोंदिन काल के और भी अधिक अधीन होना पड़ता है, तो भी लोग जन्मदिन का उत्सव बड़े धूम-धाम से मनाते हैं और आनन्द की ध्वजा भी फहराते हैं। लोगों को श्रवणेन्द्रियों में मरण का शब्द भी भला नहीं सुनायी पड़ता और जिस समय किसी की मृत्यु हो जाती है, उस समय लोग जोर-जोर से चिल्लाने लगते हैं, परन्तु वे लोग अपनी मूढ़ता के वशीभूत होने के कारण कभी इस बात का विचार भी नहीं करते कि स्वयं हमारी ही आयु दिनोंदिन क्षीण होती चली जा रही है। जिस समय मेढक को सर्प निगलने लगता है, उस समय भी वह मेढक मक्खियों को खाने के लिये अपने मुँह से बलपूर्वक पकड़े रहता है। ठीक इसी प्रकार व्यक्ति भी अपनी तृष्णाएँ निरन्तर बढ़ाता चलता है, पर इससे उसका क्या हित हो सकता है? इस मृत्युलोक की दशा भी कैसे खराब हो रही है! हे अर्जुन! यद्यपि तुमने इस लोक में अपने कर्मों की गति से ही जन्म ग्रहण किया है, पर फिर भी तुम यहाँ से झटपट अलग होकर निकल जाओ और उस मार्ग से चलो, जिस पर चलने से तुम्हें मेरे निर्दोष, अविनाशी पद की प्राप्ति हो सकती है।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (475-516)
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