श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग
जिस जगह पर शस्त्रों की बौछार हो रही हो, उस जगह पर व्यक्ति अपना बिल्कुल खुला हुआ शरीर लेकर क्यों रहे? जहाँ शरीर पर पत्थर बरस रहे हों वहाँ यह कैसे सम्भव है कि व्यक्ति अपनी रक्षा का कोई उपाय न करे? जब शरीर को रोग घेर लिया हो, तब औषधि के विषय में व्यक्ति कैसे मौन रह सकता है? जब चतुर्दिक् आगजनी हो, तब यह कैसे सम्भव है कि बाहर निकलने का उद्योग ही न किया जाय? इसी प्रकार हे अर्जुन! संकटापन्न इस मृत्युलोक में आने पर यह कैसे हो सकता है कि व्यक्ति मेरा भजन न करे और व्यक्ति में ऐसी कौन-सी सामर्थ्य है जिसके भरोसे वह मेरा भजन न करने की ढिठाई कर सके? घर-बार इत्यादि में ऐसी कौन-सी बात है कि उसके सहारे व्यक्ति चिन्तामुक्त होकर रह सके? क्या बिना मेरा भजन किये व्यक्ति अपने मन में यह विश्वास कर सकता है कि विद्या और तारुण्य से ही वास्तविक सुख मिल सकता है? जितने विषय-भोग हैं, वे सब वास्तव में शरीर के स्वस्थ रहने पर ही निर्भर करते हैं और यह शरीर निरन्तर काल के गाल में समाया हुआ है। इस मृत्युलोक में जीवन और मृत्यु का एक ऐसा हाट लगा हुआ है जिसमें दुःखों और संकटों का माल चतुर्दिक् खुला पड़ा है तथा मृत्युरूपी माल के गट्ठर-पर-गट्ठर निरन्तर चले आते हैं और प्राणी इस हाट में पहुँचे हैं। ऐसी स्थिति में हे पाण्डुसुत! सुख का व्यवहार कैसे हो सकता है? इस लोक में जीवन को सुख देने वाला सौदा कैसे हो सकता है? क्या राख को फूँक कर कभी दीप को प्रज्वलित किया जा सकता है? जैसे कोई व्यक्ति किसी विषकन्द को निचोड़ कर उसमें से रस निकाले और फिर उसका नाम अमृत-रस रखकर उसका पान कर जाय और उसके बल पर अमर होने की आशा रखे, ठीक वैसे ही अमृत-रस की तरह विषय-सुख है जो वास्तव में परम दुःख है। पर क्या किया जाय! जो मूढ़जन हैं, वे उन विषयों के बिना रह ही नहीं सकते। यदि पाँव में घाव हो जाय और उस घाव पर कोई व्यक्ति अपना सिर काटकर बाँध दे, तो यह बात उसके लिये कहाँ तक कल्याणकारक हो सकती है? बस, मृत्युलोक के समस्त सुखों को भी इसी प्रकार का हितकारक समझना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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