ज्ञानेश्वरी पृ. 289

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग

हे अर्जुन! वास्तविक धन्यता तो मेरी सच्ची भक्ति में ही निहित है। फिर वह भक्ति चाहे जैसे भी हो, एक बार जब उस भक्ति से सम्पृक्त मन मुझमें समा जाता है, तब उससे पूर्व के समस्त कर्म पूर्णतया मिट जाते हैं। छोटे-छोटे नाले इत्यादि तभी तक नाले कहलाते हैं, जब तक वे गंगा नदी में प्रविष्ट नहीं हो जाते; पर एक बार गंगा में प्रविष्ट हो जाने पर जिस प्रकार वे गंगा का रूप ही हो जाते हैं अथवा जिस प्रकार काष्ठ के चन्दन, खैर इत्यादि वर्ग तभी तक रहते हैं, जब तक वे अग्नि में पड़कर उसके साथ एकाकार नहीं हो जाते, उसी प्रकार जब तक कोई मेरे स्वरूप के साथ मिलकर समरस नहीं हो जाता, तभी तक वह क्षत्रिय, वैश्य, स्त्री, शूद्र, अन्त्यज इत्यादि के रूप में भासमान होता है। पर जैसे समुद्र में डाला हुआ लवण-कण उसी में विलीन हो जाता है। वैसे ही मेरे साथ मिलते ही जाति-भेद वाले भास का नामो-निशान मिट जाता है। भिन्न-भिन्न नदों और नदियों का नाम तभी तक है, जब तक वे जाकर समुद्र में मिल नहीं जातीं और तभी तक उनके विषय में यह भेद भी किया जा सकता है कि अमुक नदी का प्रवाह पूर्व की ओर है और अमुक का पश्चिम की ओर। इसलिये जिस किसी भी बहाने से चित्त का प्रवेश एक बार भी मेरे स्वरूप में हो जाय, तो फिर वह व्यक्ति स्वतः मद्रूप हो जाता है। चाहे पारस को तोड़ने का ही उद्देश्य क्यों न हो, पर एक बार लोहे का पारस के साथ स्पर्श हो जाना चाहिये; बस फिर काम हो जाता है‚ क्योंकि पारस का स्पर्श होते ही वह लोहा भी सोना हो जायगा।

हे अर्जुन! जिस समय प्रेम के निमित्त व्रजांगनाओं का अन्तःकरण मेरे रंग में रँगा गया, उस समय वे सद्यः मद्रूप हो गयीं अथवा नहीं? इसी प्रकार भयग्रस्त होने के कारण कंस, शत्रुता के निमित्त से शिशुपाल इत्यादि शत्रु, सगोत्र एवं सम्बन्धी होने के कारण यादव और ममता रखने के कारण वसुदेव इत्यादि क्या मेरे साथ मिलकर एकरूपता नहीं प्राप्त कर चुके हैं? जैसे नारद, ध्रुव, अक्रूर, शुक और सनत्कुमार इत्यादि के लिये मैं भक्ति के गुण से साथ हो गया, वैसे ही, हे पार्थ! मैं विषय-बुद्धि से गोपियों को, भय से कंस को और शिशुपाल इत्यादि अन्य अनेक लोगों को उनकी दुष्प्रवृत्तियों के कारण ही प्राप्त हो गया। मैं सबका अन्तिम ध्येय हूँ, फिर चाहे लोग मेरे सन्निकट भक्ति-भाव से, चाहे विषय बुद्धि से, चाहे शुत्रुता से और चाहे किसी भी मनोवृत्ति से ही क्यों न आवें। इसीलिये हे पार्थ! मेरे स्वरूप में मिलने के लिये इस संसार में साधनों की कमी नहीं है। व्यक्ति का जन्म चाहे जिस जाति में हुआ हो और वह चाहे मेरी भक्ति करे अथवा विरोध, पर उसे होना चाहिये मेरा ही भक्त अथवा मेरा ही शत्रु; बस, यही प्रमुख बात है। चाहे किसी बहाने व्यक्ति को मेरापन मिल जाय, उसे भली-भाँति जान लेना चाहिये कि मेरा स्वरूप उसके हाथ लग गया। इसीलिये, हे अर्जुन! चाहे पापयोदि हो और चाहे वैश्य-शूद्र हो अथवा स्त्री, सब-के-सब मेरी उपासना से ही मेरे परमधाम पहुँचते हैं।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (443-474)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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