ज्ञानेश्वरी पृ. 288

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग


मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु: पापयोनय: ।
स्त्रियो वैश्वास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ॥32॥

हे किरीटी! जिसका नाम लेना भी निन्दा के योग्य है, उस अधम नाम वाली जातियों में भी जो अधमाधम जाति है, उस नीचतम जाति वाली पापयोनि में जिसने जन्म लिया है; उस पापयोनि में उत्पन्न होने के अलावा जो ज्ञान के नाम से केलव पत्थर है, पर फिर भी जिसमें मेरे प्रति कूट-कूट कर भक्ति भरी हुई है, जिसकी वाणी अनवरत मेरा ही गुणानुवाद करती है, जिसकी दृष्टि अनवरत मेरा ही रूप देखती है, जिसका मन सदा मेरे ही विषय में विचार करता है, जिसकी श्रवणेन्द्रियाँ मेरी कीर्ति के श्रवण से कभी खाली नहीं रहतीं, जिसे मेरी सेवा ही अपने शरीर का अलंकार जान पड़ती है, जिसे विषयों का कोई भान भी नहीं होता, जो सिर्फ मुझे ही जानता है और इन सब बातों के न होने पर जिसे अपना जीवन मरणतुल्य जान पड़ता है, हे पाण्डव! इस प्रकार जिसने अपनी समस्त वृत्तियों से जीवन के लिये एकमात्र मुझे ही अपना आश्रय बना रखा है, फिर चाहे उसने पापयोनि में ही क्यों न जन्म लिया हो और चाहे वह विद्याविहीन ही क्यों न हो, तो भी यदि मेरे साथ उसकी तुलना की जाय तो वह मुझसे तिलभर भी कम न ठहरेगा। देखो, इस भक्ति से सम्पन्न होने के कारण ही दैत्यों ने भी देवताओं को नीचा दिखलाया है।

मेरे भक्त प्रह्लाद ने दैत्य-कुल में ही जन्म लिया था, पर उसकी पावन भक्ति ने मुझे नृसिंहरूप धारण करने के लिये विवश किया था। उस प्रह्लाद को मेरे लिये ही बहुत-से लोगों ने नाना प्रकार के कष्ट पहुँचाये थे। इसी का यह फल हुआ कि जो कुछ मैं प्रदान कर सकता था, वह सब उसे पहले से ही मिला हुआ था। अन्यथा उसका कुल बिल्कुल दैत्यों का था; पर देवेन्द्र भी उसकी बराबरी न कर सका। कहने का अभिप्राय यही है कि यहाँ सिर्फ भक्ति ही काम में आती है, जाति का कुछ भी महत्त्व नहीं है। यदि राजाज्ञा के अक्षर किसी चर्मखण्ड पर भी अंकित कर दिये जायँ तो उस चर्मखण्ड के बदले में भी समस्त वस्तुएँ मिल सकती हैं। किन्तु यदि राजाज्ञा के अक्षरों का अंकन न हो तो सोने के टुकड़ों को भी कोई हाथ में नहीं लेता। अतः यह सिद्ध हुआ कि सारा महत्त्व राजाज्ञा का ही है और यदि कोई ऐसा चमड़े का टुकड़ा प्राप्त हो जाय जिस पर राजाज्ञा के अक्षर अंकित हों, तो उसके सहयोग से हम जो चीज चाहें, वह खरीद सकते हैं। इसी प्रकार जब मेरे प्रेम से मन और बुद्धि लबालब भर जाती है, तभी उत्तमता और सर्वज्ञता भी उपयोगी हो सकती है। इसीलिये कुल और जाति इत्यादि सब बेकार की बातें हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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