ज्ञानेश्वरी पृ. 283

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग


यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् ।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥27॥

तुम जो-जो व्यापार करो, जिन विषयों का सेवन करो, जिन यज्ञों का सम्पादन करो, जो कुछ दान-पुण्य करो अथवा सेवकों के जीवन-निर्वाह की जो व्यवस्था करो अथवा तप और व्रत इत्यादि का जो आचरण करो अर्थात् जो भी क्रियाएँ तुम्हारे द्वारा सम्पन्न हों, वे सब मेरे ही उद्देश्य से समर्पित करते चलो। परन्तु हाँ, ऐसा करते समय उसमें अहंकार का प्रवेश रत्तीभर भी नहीं होना चाहिये। इस प्रकार अहंकार का दोष सर्वथा प्रक्षालित कर देना चाहिये और समस्त कर्मों का अहंकार के दोष से निर्मल रखकर मुझे समर्पित करना चाहिये।[1]


शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनै: ।
सन्न्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि ॥28॥

जैसे अग्निकुण्ड में भूना हुआ बीज कभी अंकुरित नहीं हो सकता, वैसे ही मुझे समर्पित किये हुए कर्मों का कभी कोई फल नहीं हो सकता। कहने का आशय यह है कि जो कर्म मुझे अर्पित किये जाते हैं, उनके फल के बन्धन में कर्ता कभी नही बँधता। अर्थात् वे कर्म उसके लिये कभी बन्धनकारक नहीं हो सकते। हे पार्थ! जब कर्म शेष रहते हैं, तभी उनके फल भी उत्पन्न होते हैं और उन फलों का भोग करने के लिये जीव को कोई-न-कोई शरीर धारण करना पड़ता है, परन्तु यदि वे सारे कर्म पूर्णरूप से मुझे समर्पित कर दिये जायँ, तो उसी समय जीवन और मृत्यु का सारा चक्कर ही समाप्त हो जाता है। हे अर्जुन! यह कहने का कि आज ही कौन-सी जल्दी है! कल देखा जायगा और इस प्रकार आज का काम कल पर टरकाने का समय नहीं है; इसीलिये आत्मस्वरूप प्राप्त करने का सबसे सहज उपाय फल-संन्यासयुक्त कर्मयोग है और उसके विषय में मैंने तुम्हें बतला दिया है। तुम इस देह के बन्धन में मत रहो तथा सुख-दुःख के समुद्र में डुबकी मत लगाओ और सहज में इस सुगम मार्ग से चलकर प्रसन्नतापूर्वक मेरे आनन्दमय स्वरूप में मिलकर रहो।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (398-401)
  2. (402-406)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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