श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग
हे अर्जुन! आत्मस्वरूप का अनुभव हुए बिना मैं कभी किसी को प्रिय नहीं होता। मैं अन्य किसी उपाय से किसी के लिये साध्य नहीं हो सकता। इन विषयों में जो अपने ज्ञान का गर्व करता हो, उसी को अज्ञानी जानना चाहिये। जो अपना बड़प्पन दिखलाता हो, उसके विषय में निश्चितरूप से जान लेना चाहिये कि उसी में कुछ कमी है। जो अभिमानपूर्वक यह कहता है कि अब मैं परिपूर्ण हो गया हूँ, उसके सम्बन्ध में खूब अच्छी तरह समझ लेना चाहिये कि उसमें कुछ भी महत्त्व नहीं है। इसी प्रकार, हे किरीटी! जो लोग अपने तपश्चरण की डींग हाँकते हैं, उनके इन सब कर्मों का तृणभर भी उपयोग नहीं होता। भला तुम्हीं बतलाओ कि ज्ञान-बल में क्या कोई वेदों से भी बढ़कर है? अथवा वक्तृत्व की शक्ति में क्या कोई शेषनाग से भी बढ़कर कुशल वक्ता है? पर वह शेषनाग भी मेरी शय्या के नीचे दबा रहता है और वेद भी नेति-नेति कहकर पीछे हट जाते हैं। इस विषय में सनकादिक ज्ञाता भी पागल बन गये हैं। यदि तपश्चरण का विचार करो तो शंकर के समान कठोर तपस्या किसने की है? पर वे भी अभिमान का परित्याग करके मेरे चरण-तीर्थ अपने मस्तक पर धारण करते हैं। सम्पन्नता में लक्ष्मी की बराबरी कौन कर सकता है, जिसके घर में श्री-सरीखी परिचारिकाएँ सेवारत रहती हैं? उसी लक्ष्मी ने खेल-खेल में जो घरौंदा बनाया है, उसी को लोग अमरपुरी कहते हैं। ऐसी स्थिति में क्या इन्द्रादि देव उन लक्ष्मी की पुतलियाँ नहीं सिद्ध होते? वह लक्ष्मी जिस समय ऐसे खेल से ऊबकर ये घरौंदें तोड़ डालती है, उस समय महेन्द्रादि समस्त देवता कंगाल हो जाते हैं। वे परिचारिकाएँ जिन वृक्षों की ओर दृष्टिपात करती हैं, वे वृक्ष कल्पवृक्ष हो जाते हैं। जिस लक्ष्मी के घर की दासियों में भी इस प्रकार की अलौकिक सामर्थ्य है, उस मुख्य नायिका लक्ष्मी का भी नारायण के समक्ष कोई विशेष महत्त्व नहीं है। इसलिये हे पाण्डव! वे लक्ष्मी पूरे मनोयोग से मेरी सेवा करती हैं और अभिमान छोड़कर उन्होंने नारायण के पाँव पखारने का सौभाग्य प्राप्त कर लिया है। इसलिये सबसे पहले अपने महत्त्व के सब विचार त्यागने पड़ते हैं, ज्ञान-सम्बन्धी अभिमान को छोड़ना पड़ता है और अन्तःकरण में इस प्रकार की निर्मल भावना रखकर विनम्र होना पड़ता है कि मैं जगत् के समस्त जीवों से तुच्छ हूँ। तब जाकर व्यक्ति मेरे सान्निध्य का लाभ प्राप्त होता है। देखो, हजार रश्मियों वाले सूर्य की दृष्टि के सम्मुख चन्द्रमा भी फीका पड़ जाता है तो फिर खद्योत (जुगनू) भला अपने प्रकाश से क्या प्रतिष्ठा पा सकता है? इसलिये जहाँ लक्ष्मी का महत्त्व और शंकर का तप भी कोई चीज न हो, वहाँ अज्ञानी और दुर्बल व्यक्तियों का भला क्या पूछना है! इसीलिये देहाभिमान का परित्याग कर देना चाहिये, समस्त सद्गुणों की प्रतिष्ठा राई-नोन की[1] भाँति उतारकर फेंक देनी चाहिये और सम्पत्ति के मद को निछावर करके उसका नाश कर डालना चाहिये।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महिलाएँ अपने बच्चों की नजर उतारने के लिये सरसों और नमक को उसके सिर पर फिराकर फेंक देती हैं अथवा जला देती हैं।
- ↑ (355-381)
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