ज्ञानेश्वरी पृ. 276

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग

इस प्रकार ये यज्ञकर्ता यज्ञ के द्वारा मेरा यजन करके स्वर्ग के सुख को भोगने की याचना करते हैं और फिर अपने उस पापरूपी पुण्य की सामर्थ्य से, जिससे कभी मेरी प्राप्ति नहीं हो सकती, वे लोग स्वर्गलोक प्राप्त करते हैं। उस स्वर्ग में एक अमरत्व ही सिंहासन है। वहाँ बैठने के लिये ऐरावत और रहने के लिय अमरावती नाम की राजधानी हैं वहाँ महासिद्धियों के भण्डार हैं, अमृत के कुण्ड हैं और झुण्ड-के-झुण्ड कामधेनु हैं। वहाँ परिचर्या के लिये नित्य देवता लोग उपस्थित रहते हैं, धरती पर चिन्तामणि के फर्श बने हैं और क्रीड़ा के लिेय चमुर्दिक् कल्पवृक्षों के बागीचे हैं। वहाँ गन्धर्व गान करते हैं, रम्भा जैसी अप्सराएँ नृत्य करती हैं और उर्वशी-सरीखी विलासनी स्त्रियाँ मिलती हैं। वहाँ शयन कक्ष में स्वयं मदन सेवा करता है, आँगन का सिंचन स्वयं चन्द्रमा करता है और पवन-जैसे सेवक दौड़-धूपकर सब काम करते रहते हैं। वहाँ ऐसे स्वस्तिवाचन करने वाले ब्राह्मण होते हैं, जिनमें प्रमुखरूप से बृहस्पति हैं। वहाँ चारणों का काम करने के लिये बहुतेरे देवता उपस्थित रहते हैं। वहाँ सरदारों की भाँति पंक्तिबद्ध होकर खड़े रहने वाले लोकपाल रहते हैं तथा उच्चैःश्रवा-जैसा कोतवाल घोड़ा है। कहने का अभिप्राय यह है कि जिस समय तक उनकी गाँठ में पुण्य रहता है, उस समय तक वे इन्द्र के सुख के सदृश इसी प्रकार के अनेक सुखों का उपभोग करते है।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (307-327)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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