ज्ञानेश्वरी पृ. 274

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग


तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च ।
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन ॥19॥

जिस समय मैं सूर्य का वेश धारण कर तपता हूँ, उस समय जल सूख जाता है। फिर मैं ही इन्द्र के रूप में वृष्टि करता हूँ, जिससे सर्वत्र फिर जल भर जाता है। जैसे अग्नि जिस समय लकड़ी को जलाती है उस समय वह लकड़ी ही अग्नि हो जाती है, उसी प्रकार मरने और मारने वाले-ये दोनों मेरे ही स्वरूप होते हैं। यही कारण है कि जो लोग मृत्यु के मुख में प्रवेश करते हैं, वे भी मेरे ही रूप हैं और जो अमर है, वे तो स्वभावतः मेरे रूप हैं ही। जो बात बहुत विस्तार से बतलाने की है, वह अब मैं तुम्हें एक ही बार में बतला देता हूँ; ध्यानपूर्वक सुनो।

सत् और असत् अर्थात् व्यक्त और अव्यक्त, सब कुछ मैं ही हूँ। इसीलिये हे अर्जुन! ऐसी कोई जगह नहीं है, जहाँ मैं न होऊँ। पर प्राणियों का दुर्भाग्य ही है कि मैं उन्हें दिखायी ही नहीं देता। यदि लहरें पानी नहीं है, यह कहकर सूख जायँ अथवा सूर्य की रश्मियाँ दीपक नहीं है, यह कहकर अन्धी हो जायँ, तो यह कितने आश्चर्य की बात है! इसी प्रकार यह भी एक आश्चर्य की ही बात है कि लोग मद्रूप होते हुए भी यह कहकर भ्रान्त होते हैं कि ‘मैं नहीं हूँ’। इस सारे जगत् के अन्दर और बाहर केवल मैं ही हूँ और यह समस्त विश्व मेरी ही मूर्ति है; पर इन भाग्यहीनों का कर्म कैसा विपरीत होता है कि वे यह कहते हैं कि ‘मैं नहीं हूँ’। यह बात भी ठीक वैसी ही है, जैसे कोई पहले तो अमृत के कुँए में गिर पड़े और फिर कुँए से बाहर निकाले जाने की इच्छा करे, तो फिर भला ऐसे अभागे के लिये क्या किया जाय? हे किरीटी! जैसे कोई अन्धा कौरभर अन्न के लिये दर-दर की ठोकरें खाता रहता है और अपने अन्धेपन के कारण पैर में लगने वाले चिन्तामणि को ठुकरा देता है, वैसी ही दशा ज्ञानविहीन जीवों की भी होती है। इसीलिये व्यक्ति को जो कुछ करना चाहिये, वह उससे ज्ञानाभाव के कारण नहीं हो सकता। अन्धे गरुड़ को भी पंख होते हैं; पर वे किस काम के? इसी प्रकार ज्ञान के बिना सत्कर्म का परिश्रम (प्रयास) व्यर्थ जाता है।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (296-306)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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