श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग
पर जिस समय उस शुद्ध ब्रह्मज्ञान का उदय हो जाता है, उस समय इस बात का ज्ञान हो जाता है कि जो मुख्य वेद हैं, वह भी मैं ही हूँ और वेदों में वर्णित अनुष्ठान-विधि से जो क्रतु या यज्ञ सम्पन्न किये जाते हैं, वह भी मैं ही हूँ। फिर उन क्रतु-कर्मों से जो यथास्थित यज्ञ होते हैं, वे सांगोपांग यज्ञ भी मैं ही हूँ। स्वाहा मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, सोमवल्ली इत्यादि नाना प्रकार की औषधियाँ मैं हूँ, घृत और समिधा मैं हूँ, मन्त्र और होमद्रव्य भी मैं ही हूँ, ऋत्विज् मैं हूँ, जिसमें यज्ञ किया जाय वह अग्नि ही मेरा स्वरूप है और जिन-जिन वस्तुओं का हवन किया जाय, वह सब मैं ही हूँ।[1]
जिसके सम्बन्ध से इस अष्टधा प्रकृति (माया) से यह नाम-रूप वाला जगत् उत्पन्न होता है, उस जगत् का पिता भी मैं ही हूँ। अर्धनारी नटेश्वर की मूर्ति में स्थित जो पुरुष होता है, वह नारी भी होता है और इसी प्रकार इस चराचर जगत् की माता भी मैं ही हूँ। फिर उत्पन्न होने वाला जगत् जिसके आधार पर बना रहता है और बढ़ता है, वह आधार भी मेरे अलावा अन्य कोई नहीं है। यह प्रकृति और पुरुष (शिव-शक्ति) जिसके सहज संकल्प से अस्तित्व में आये हैं, वह त्रिलोकी का पिता भी मैं ही हूँ। हे सुभट! समस्त भिन्न-भिन्न ज्ञानमार्ग अन्ततः जिस एक चौराहे पर आकर मिलते हैं, जिसका नाम वेद्य (जानने की वस्तु) है, जहाँ नाना मत एकमत हो जाते हैं, जहाँ भिन्न-भिन्न शास्त्र परस्पर एक-दूसरे को पहचान लेते हैं और जहाँ उनका भेदभाव बिल्कुल समाप्त हो जाता है। जहाँ एक-दूसरे से पृथक् रहने वाला ज्ञानमार्गों का मेल-मिलाप होता है, जिसे पवित्र नाम से पुकारते हैं और यदि संकल्परूपी ब्रह्मबीज से अंकुरित नाद-स्वरूप घोष (ध्वनिमय अंकुर) का मूल स्थान जो ओंकार है, वह भी मैं ही हूँ। उस ओंकार के कुक्षि में रहने वाले जो अकार, उकार और मकार-ये तीनों अक्षर वेदों के साथ उत्पन्न हुए हैं, वे अक्षर भी मैं ही हूँ। आत्माराम श्रीकृष्ण ने कहा कि ऋक्, यजुस् और साम-ये तीनों वेद भी मैं ही हूँ और मैं ही वेद की वंश-परम्परा भी हूँ।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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