श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग
यही कारण है कि विश्व में भेदभाव भासमान होता है, पर फिर भी भेदभाव के कारण उनके ज्ञान में भेद नहीं होता। जिस प्रकार अवयव पृथक्-पृथक् होने पर भी वे वास्तव में एक ही शरीर के होते हैं अथवा शाखाएँ छोटी-बड़ी होने पर भी जिस प्रकार वे एक ही वृक्ष की होती हैं अथवा रश्मियाँ अनगिनत होने पर भी वे सब एक ही सूर्य की होती हैं, उसी प्रकार उनके लिये तरह-तरह की रूपात्मक वस्तुएँ, उनके भिन्न-भिन्न नाम, उनके भिन्न-भिन्न व्यापार और उन सबसे सम्बन्धित भेद भौतिक विश्वभर के लिये ही होते हैं और उन भक्तों को यह बात अच्छी तरह से मालूम है कि मैं पूर्णरूप से भेद-भाव से रहित हूँ। हे पाण्डव! जो इस भिन्न प्रकार से अपने ब्रह्मस्वरूप के ज्ञान को भेदभाव का स्पर्श नहीं होने देते, वे ही अच्छी तरह से ज्ञान-यज्ञ करते हैं; क्योंकि जिस समय और जिस जगह पर उन्हें जो कुछ दृष्टिगत होता है उसके विषय में पहले से ही उनका यह ज्ञान रहता है कि वह मुझ परब्रह्म के सिवा और कुछ भी नहीं है। देखो, जो बुलबुला बनता है वह जलरूप ही होता है, अब चाहे वह फूट जाय और चाहे रहे, पर उसके विषय में जो कुछ होता है, वह जल से ही होता है। धूल के कण वायु के वेग से भले ही इधर-उधर उड़ने लगें, पर फिर भी उनका पृथ्वीभाव कभी विनष्ट नहीं होता और जिस समय वे गिरते हैं, उस समय पृथ्वी पर ही गिरते हैं। इसी प्रकार चाहे कोई नाम-रूप वाली वस्तु क्यों न हो, फिर चाहे वह रहे अथवा नष्ट हो जाय, पर वह अनवरत ब्रह्मरूप ही रहती है। मैं जिस प्रकार सर्वव्यापक हूँ, उसी प्रकार उनका ब्रह्मानुभव भी सर्वव्यापक होता है। इस प्रकार के लोग यह ज्ञान रखकर सब प्रकार के व्यवहार करते हैं कि नानाविध विश्व एकविध ब्रह्म ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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