श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग
“अब मैं ज्ञान-यज्ञ का सम्पादन किस प्रकार होता है, उसके सम्बन्ध में बतलाता हूँ। परब्रह्म में जो ‘एकोऽहं बहुस्याम् प्रजायेय’ वाला आदि संकल्प उत्पन्न होता है, वह इस यज्ञ-स्तम्भ है। पंचमहाभूत यज्ञ मण्डप हैं और द्वैत यज्ञ-पशु है। फिर पंचमहाभूतों के जो विशेष गुण अथवा इन्द्रियाँ तथा प्राण हैं वही इस ज्ञान यज्ञ की सामग्री है। अज्ञान घृत है, जो इस यज्ञ में हवन करने के काम आता है। इस ज्ञान-यज्ञ में मन और बुद्धिरूपी कुण्डों में ज्ञानाग्नि धधकती रहती है और हे पार्थ! साम्यभावना को ही इस ज्ञान यज्ञ की सुन्दर वेदी जानना चाहिये। विवेकयुक्त बुद्धि की कुशलता ही मन्त्र की शक्ति है, शान्ति ही इसका यज्ञ पात्र है तथा जीव यज्ञ करने वाला यजमान है। यही यज्ञकर्ता जीव ब्रह्मानुभव के पात्र में से विवेकरूपी महामन्त्र के द्वारा ज्ञानरूपी अग्नि के होम में द्वैत की आहुति देता है। जिस समय अज्ञान का अन्त हो जाता है, उस समय यज्ञ करने वाला यजमान और यज्ञविधि दोनों का अवसान हो जाता है। फिर जब आत्मैक्य के जल में जीव अवभृथ स्नान करता हे, तब भूत, विषय और इन्द्रियाँ अलग-अलग नहीं दिखायी देतीं। आत्मैक्य बुद्धि के पूर्णतया प्रतिबिम्बित हो जाने के कारण सब कुछ एक ब्रह्मरूप ही जान पड़ता है। हे अर्जुन! जैसे निद्रा से जागा हुआ व्यक्ति कहता है कि सुप्तावस्था में जो स्वप्न मैंने देखा था उसकी विचित्र सेना मै ही बना हुआ था; पर अब मैं जाग्रत्-अवस्था में हूँ। वह स्वप्नावस्था की सेना एकमात्र भ्रमजाल थी। वह सब कुछ मैं ही था और अब भी मैं ही हूँ।” वैसे ही ज्ञानयज्ञ सम्पादन करने वाले की समझ में यह बात भली-भाँति आ जाती है कि यह सम्पूर्ण विश्व एक अभिन्न ब्रह्मरूप ही है। इससे उसका जीव-भाव ही समाप्त हो जाता है। वह परमात्म ज्ञान से भर जाता है और ब्रह्मत्व प्राप्त कर लेता है। बस, कुछ लोग इसी एक भाव से ज्ञान-यज्ञ के द्वारा मेरी भक्ति करते हैं और कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो यह मान्यता रखते हैं कि यह विश्व अनादि है। इस विश्व में होते तो सब एक-दूसरे के समान ही हैं, पर नाम और रूप इत्यादि के कारण वे भिन्न-भिन्न जान पड़ते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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