ज्ञानेश्वरी पृ. 263

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग


महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिता: ।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् ॥13॥

अनवरत पावन स्थानों में निवास करने का संकल्पक मैं क्षेत्र संन्यासी जिनके विशुद्ध मन में निवास करता हूँ, जिन्हें वैराग्य कभी सुप्तावस्था में भी त्यागकर कहीं नहीं जाता; जिनकी श्रद्धायुक्त भावनाओं में धर्म का साम्राज्य रहता है, जिनके मन में निरन्तर विवेक की आर्द्रता रहती है, जो ज्ञानरूपी गंगा में स्नान कर चुके होते हैं, जो पूर्णतारूपी भोजन कर तृप्त हो चुके होते हैं, जो शान्तिरूपी बेल में मानो नूतन पल्लव की भाँति निकले हुए होते हैं, जो उस परब्रह्म में निकले हुए अंकुर के समान होते हैं, जिसमें जगत् की परिणति होती है, जो धैर्य मण्डप के खम्भे जान पड़ते हैं, जो आनन्दरूपी समुद्र में डुबाकर भरे हुए कुम्भ के समान होते हैं, जिनका भक्ति के प्रति इतना प्रगाढ़ अनुराग होता है कि उसके समक्ष मुक्ति को भी ‘पीछे हट’ ऐसा कहते हैं, जिनके सहज आचरण में भी नीति जीवितरूप से विहार करती हुई जान पड़ती है, जिनकी सारी इन्द्रियाँ शान्तिरूपी अलंकार को धारण की होती हैं और जिनका चित्त इतना व्यापक होता है कि वह मुझ-जैसे सर्वव्यापक को भी चतुर्दिक् आच्छादित कर लेता है, इस प्रकार जो महानुभाव मेरा वह सत्य-स्वरूप पूर्णरूप से जान लेते हैं, जो दैवी सम्पत्ति का सौभाग्य ही है और दिनोंदिन बढ़ते हुए प्रेम से मेरा भजन करते हैं, पर जिनका मनोधर्म द्वैतभाव का कभी स्पर्श भी नहीं करता, हे पाण्डव! वे लोग मद्रूप होकर ही रहते हैं। वे मेरी सेवा तो करते हैं; परन्तु उस सेवा में जो एक विलक्षणता होती है, वह भी मनोयोगपूर्वक सुनो।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (188-196)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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