ज्ञानेश्वरी पृ. 262

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग

सद्बुद्धि को भी ग्रसने वाली, विवेक का ठौर-ठिकाना मिटा देने वाली और अज्ञानरूपी अन्धकार में विचरण करने वाली तामसी राक्षसी प्रकृति (माया) के चंगुल में वे लोग फँसे रहते हैं और इसीलिये उनके चित्त के धुर्रे उड़ जाते हैं और वे तमोगुणी राक्षसी के मुख में जा पड़ते हैं। उस तामसी राक्षसी के मुख में आशारूपी लार के अन्दर हिंसारूपी जीभ लपलपाती रहती है जो असन्तोषरूपी मांस के लोंदे को निरन्तर चबाती रहती है। यह हिंसारूपी जिह्वा होंठ चाटती हुई अनर्थरूपी कानों तक बाहर निकलती है। यह तामसी राक्षसी दोषों के प्रमादरूपी पर्वतों की कंदराओं में बराबर मत्त होकर विचरण करती है, उसकी द्वेषरूपी दाढ़ें ज्ञान को चबाकर पीस डालती हैं। जिस प्रकार अगस्त्य ऋषि को कुम्भ का आवरण था उसी प्रकार स्थूल बुद्धि वाले मूढ़जनों के लिये वह त्वचा और अस्थि के आवरण के समान होती है। इस प्रकार इस तामसी माया राक्षसी के मुख में जो लोग भूतों को दी हुई बलि की भाँति पड़ते हैं, वे भ्रान्ति (अज्ञान) रूपी कुण्ड में डूबकर नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार तमोगुण के गड्ढे में गिरे हुए लोगों तक सहायता के लिये विचार का हाथ पहुँच ही नही सकता। इस प्रकार के लोगों की तो कोई बात ही नहीं करनी चाहिये; कारण कि इस बात का पता भी नहीं चलता कि वे कहाँ चले गये। इसीलिये इन मूढ़जनों की यह व्यर्थ कथा अब बन्द की जाती है; क्योंकि व्यर्थ विस्तार से वाणी को ही कष्ट होगा।” देव की इस प्रकार की बातें सुनकर पाण्डुपुत्र अर्जुन ने कहा-“हे महाराज! आप जो कुछ कहते हैं, वह बिल्कुल ठीक है।” इस पर श्रीकृष्ण ने कहा-“हे पाण्डुपुत्र! अब मैं साधुजनों की स्थिति बतलाता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (172-187)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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