ज्ञानेश्वरी पृ. 257

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

Prev.png

अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग

हे सुभद्रापति! यह एक ही विचार मैं भिन्न-भिन्न प्रकार से बार-बार तुम्हें कहाँ तक बतलाऊँ! तुम सिर्फ इतना ही जान लो कि[1]-


मयाध्यक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम् ।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ॥10॥

जैसे सूर्य समस्त प्राणियों के व्यापार का केवल निमित्त होता है, वैसे ही हे पाण्डुसुत! मैं भी जगत् की उत्पत्ति का तटस्थरूप से निमित्तमात्र होता हूँ। इसका कारण यही है कि मैं जो मूल प्रकृति को धारण करता हूँ, उसी से इस स्थावर, जंगम जगत् की उत्पत्ति होती है और इस दृष्टि से विचार करने पर मैं ही इस जगत् की उत्पत्ति का कारण हूँ। अब तुम इस दिव्य ज्ञान के आलोक में मेरे इस ऐश्वर्ययोग का तत्त्व देखो। वह तत्त्व यह है कि भूतमात्र मुझमें हैं, परन्तु मैं भूतमात्र में नहीं हूँ अथवा ये भूतमात्र भी मुझमें नहीं हैं और मैं भी इनमें नहीं हूँ। हे पार्थ! यह मुख्य बात तुम कभी मत भूलो। यह गूढ़ ज्ञान ही मेरा सर्वस्व है और आज यह बात मैं तुम्हें एकदम खुले शब्दों में साफ-साफ बतला रहा हूँ। अब तुम इधर-उधर भटकने वाली इन्द्रियों के द्वार बन्द करके अपने हृदय में इस रहस्य के माधुर्य का उपभोग करो। हे पार्थ! जिस समय तक यह रहस्य हाथ नहीं लगता, उस समय तक इस नाम-रूप वाले संसार में मेरे सत्य स्वरूप का ठीक वैसे ही पता नहीं चलता, जैसे भूसे में अनाज के दानों का। सामान्यतया ऐसा मालूम पड़ता है कि तर्क के रास्ते से ही मर्म का पता चलता है; पर यथार्थतः बिना अनुभूति के इस मर्म का ज्ञान भी व्यर्थ है; कारण कि मृगजल की आर्द्रता से जमीन कभी गीली नहीं हो सकती। यदि जल में जाल फैला दिया जाय तो ऐसा जान पड़ता है कि चन्द्रबिम्ब उसी जाल में आकर उलझ गया है। परन्तु जब वह जाल जल से किनारे निकाल दिया जाता है, तब उसमें का चन्द्रमा कहाँ चला जाता है? इसी प्रकार लोग व्यर्थ की वाचालता करके अनुभव की आँखों में धूल झोंकते हैं तथा अनुभव न होने पर भी वाचालतापूर्वक कह बैठते हैं कि हमें अनुभव हो गया; परन्तु जिस समय यथार्थ-बोध का अवसर आता है, उस समय उनके उस अनुभव का कहीं ठौर-ठिकाना ही नहीं रह जाता।[2]

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (124-130)
  2. (131-139)

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः