ज्ञानेश्वरी पृ. 256

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग


न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय ।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु ॥9॥

जैसे समुद्र में उठने वाली जल की तरंगों को लवण का बना हुआ बाँध रोक नहीं सकता, वैसे ही जिन कर्मों का अन्त मुझमें ही होता है, वे कर्म भी मुझे बाँधने में समर्थ नहीं हो सकते। यदि धूम्रकणों से निर्मित पिंजरा वायु को यह कहकर रोक सकता हो कि बस, रुक जाओ अथवा सूर्यमण्डल में यदि अन्धकार का प्रवेश हो सकता हो, तो फिर ये कर्म भी मेरे लिये बन्धन कारक हो सकते हैं। जैसे भीषण वृष्टि की धारों से पर्वत का हृदय विदीर्ण नहीं होता, वैसे ही प्रकृति के द्वारा किये गये कोई भी कर्म मुझे बाँध नहीं सकते। यदि वास्तव में देखा जाय तो यह प्रकृति जो नाम-रूप आदि विकार उत्पन्न करती है, उनका आधार मैं ही हूँ। पर मैं सदा उदासीन रहता हूँ; यही कारण है कि न तो मैं कोई कर्म करता ही हूँ और न कराता ही हूँ। यदि घर में प्रज्वलित दीपक रख दिया जाय तो न तो वह किसी से कोई कर्म कराता ही है और न किसी को कोई कर्म करने से रोकता ही है। वह तो यह भी नहीं देखता कि कौन क्या कर रहा है। जैसे वह दीपक उदासीन या तटस्थ भाव से एक ओर पड़ा रहता है; परन्तु फिर भी घर में रहने वाले व्यक्तियों की क्रियाओं का कारण होता है, वैसे ही यद्यपि मैं जीवमात्र में रहता हूँ, परन्तु फिर भी जीवमात्र के कर्मों के साथ मेरा कुछ भी सम्बन्ध नहीं रहता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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