श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग
जैसे समुद्र में उठने वाली जल की तरंगों को लवण का बना हुआ बाँध रोक नहीं सकता, वैसे ही जिन कर्मों का अन्त मुझमें ही होता है, वे कर्म भी मुझे बाँधने में समर्थ नहीं हो सकते। यदि धूम्रकणों से निर्मित पिंजरा वायु को यह कहकर रोक सकता हो कि बस, रुक जाओ अथवा सूर्यमण्डल में यदि अन्धकार का प्रवेश हो सकता हो, तो फिर ये कर्म भी मेरे लिये बन्धन कारक हो सकते हैं। जैसे भीषण वृष्टि की धारों से पर्वत का हृदय विदीर्ण नहीं होता, वैसे ही प्रकृति के द्वारा किये गये कोई भी कर्म मुझे बाँध नहीं सकते। यदि वास्तव में देखा जाय तो यह प्रकृति जो नाम-रूप आदि विकार उत्पन्न करती है, उनका आधार मैं ही हूँ। पर मैं सदा उदासीन रहता हूँ; यही कारण है कि न तो मैं कोई कर्म करता ही हूँ और न कराता ही हूँ। यदि घर में प्रज्वलित दीपक रख दिया जाय तो न तो वह किसी से कोई कर्म कराता ही है और न किसी को कोई कर्म करने से रोकता ही है। वह तो यह भी नहीं देखता कि कौन क्या कर रहा है। जैसे वह दीपक उदासीन या तटस्थ भाव से एक ओर पड़ा रहता है; परन्तु फिर भी घर में रहने वाले व्यक्तियों की क्रियाओं का कारण होता है, वैसे ही यद्यपि मैं जीवमात्र में रहता हूँ, परन्तु फिर भी जीवमात्र के कर्मों के साथ मेरा कुछ भी सम्बन्ध नहीं रहता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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