श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग
हे किरीटी! जैसे धागों का समुदाय बुनावट के कारण स्वयं ही वस्त्र का रूप धारण करता है, ठीक वैसे ही मैं भी अपनी इस प्रकृति को सहज लीला के रूप में धारण करता हूँ। फिर जैसे धागों की बुनावट के कारण उनसे छोटे-छोटे चौकोर चार खाने बनते हैं; वैसे ही मेरी प्रकृति से ही नाम-रूप वाली पांच भौतिक सृष्टि उत्पन्न होती है। जैसे जामन के संग से दूध जमने लगता है, वैसे ही मूल प्रकृति में सृष्टि का भाव प्रतिबिम्बित होने लगता है। जब बीज को जल का सान्निध्य प्राप्त होता है, तब उसमें से अंकुर निकलने लगते हैं और उनसे जो शाखाएँ और उपशाखाएँ बनती हैं, वे ही वृक्ष का रूप धारण कर लेती हैं। ठीक इसी प्रकार मुझसे प्रकृतिजन्य भूत-सृष्टि का विस्तार होता है। प्रायः लोग कहते हैं कि राजा ने अमुक नगर बसाया और एक दृष्टि से लोगों का यह कथन ठीक भी होता है, पर यदि वास्तविक दृष्टि से देखा जाय तो क्या कोई यह कह सकता है कि उस नगर के बसाने में राजा का कभी हाथ भी लगा था? ठीक इसी प्रकार मैं भी प्रकृति को उसी तरह स्वीकार करता हूँ, जिस तरह स्वप्नावस्था में रहने वाला व्यक्ति जाग्रत् अवस्था में प्रवेश करता है। जिस समय स्वप्न की स्थिति में रहने वाला व्यक्ति जाग्रत्-अवस्था में आता है, उस समय क्या उसके पैरों को कभी कोई मेहनत करनी पड़ती है? अथवा उसे स्वप्न से चलकर कोई प्रवास करना पड़ता है? इन सब बातों को कहने का अभिप्राय क्या है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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