ज्ञानेश्वरी पृ. 254

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग


प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुन: पुन: ।
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात् ॥8॥

हे किरीटी! जैसे धागों का समुदाय बुनावट के कारण स्वयं ही वस्त्र का रूप धारण करता है, ठीक वैसे ही मैं भी अपनी इस प्रकृति को सहज लीला के रूप में धारण करता हूँ। फिर जैसे धागों की बुनावट के कारण उनसे छोटे-छोटे चौकोर चार खाने बनते हैं; वैसे ही मेरी प्रकृति से ही नाम-रूप वाली पांच भौतिक सृष्टि उत्पन्न होती है। जैसे जामन के संग से दूध जमने लगता है, वैसे ही मूल प्रकृति में सृष्टि का भाव प्रतिबिम्बित होने लगता है। जब बीज को जल का सान्निध्य प्राप्त होता है, तब उसमें से अंकुर निकलने लगते हैं और उनसे जो शाखाएँ और उपशाखाएँ बनती हैं, वे ही वृक्ष का रूप धारण कर लेती हैं। ठीक इसी प्रकार मुझसे प्रकृतिजन्य भूत-सृष्टि का विस्तार होता है। प्रायः लोग कहते हैं कि राजा ने अमुक नगर बसाया और एक दृष्टि से लोगों का यह कथन ठीक भी होता है, पर यदि वास्तविक दृष्टि से देखा जाय तो क्या कोई यह कह सकता है कि उस नगर के बसाने में राजा का कभी हाथ भी लगा था? ठीक इसी प्रकार मैं भी प्रकृति को उसी तरह स्वीकार करता हूँ, जिस तरह स्वप्नावस्था में रहने वाला व्यक्ति जाग्रत् अवस्था में प्रवेश करता है। जिस समय स्वप्न की स्थिति में रहने वाला व्यक्ति जाग्रत्-अवस्था में आता है, उस समय क्या उसके पैरों को कभी कोई मेहनत करनी पड़ती है? अथवा उसे स्वप्न से चलकर कोई प्रवास करना पड़ता है? इन सब बातों को कहने का अभिप्राय क्या है?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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