श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग
यदि तुम मेरे विस्तार की बात पूछो तो क्या यह बात ठीक नहीं है कि यह जो सारा संसार है, वह मैं ही हूँ? जैसे दूध अपनी प्रकृति के अनुसार जमकर दही का रूप धारण कर लेता है अथवा बीज ही वृक्ष के रूप में प्रकट होता है अथवा जैसे स्वर्ण के ही आभूषण बनते हैं, वैसे ही यह सारा संसार एकमात्र मेरा ही विस्तार है। मेरा अव्यक्त तत्त्व ही जमकर इस नाम-रूप वाले विश्व का आकार धारण करता है और मैं अमूर्त ही तत्क्षण त्रिभुवन का विस्तार करता हूँ। जैसे जल का फेन प्रकट रूप से दिखायी पड़ता है, वैसे ही महदादि समस्त जीव मुझ में ही दिखायी पड़ते हैं। पर जैसे उस फेन के अन्दर देखने पर जल दृष्टिगोचर नहीं होता अथवा स्वप्नावस्था में दृष्टिगोचर होने वाले नाना प्रकार के आकर जाग्रत्-अवस्था में दृष्टिगोचर नहीं होते, वैसे ही यद्यपि ये जीवमात्र मुझ में ही भासमान होते हैं, पर फिर भी इन जीवों में मेरा निवास नहीं होता। इस तत्त्व का निरूपण मैं इससे पहले भी एक बार तुम्हें बतला चुका हूँ। अत: एक बार बतलायी हुई बात का पुनर्विस्तार करना उचित नहीं है, इसलिये यहाँ इतना ही कहना यथेष्ट है; पर तुम्हारी दृष्टि मेरे स्वरूप में प्रविष्ट होकर विस्तृत होनी चाहिये।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (64-70)
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |