ज्ञानेश्वरी पृ. 249

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग


मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना ।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थित: ॥4॥

यदि तुम मेरे विस्तार की बात पूछो तो क्या यह बात ठीक नहीं है कि यह जो सारा संसार है, वह मैं ही हूँ? जैसे दूध अपनी प्रकृति के अनुसार जमकर दही का रूप धारण कर लेता है अथवा बीज ही वृक्ष के रूप में प्रकट होता है अथवा जैसे स्वर्ण के ही आभूषण बनते हैं, वैसे ही यह सारा संसार एकमात्र मेरा ही विस्तार है। मेरा अव्यक्त तत्त्व ही जमकर इस नाम-रूप वाले विश्व का आकार धारण करता है और मैं अमूर्त ही तत्क्षण त्रिभुवन का विस्तार करता हूँ। जैसे जल का फेन प्रकट रूप से दिखायी पड़ता है, वैसे ही महदादि समस्त जीव मुझ में ही दिखायी पड़ते हैं। पर जैसे उस फेन के अन्दर देखने पर जल दृष्टिगोचर नहीं होता अथवा स्वप्नावस्था में दृष्टिगोचर होने वाले नाना प्रकार के आकर जाग्रत्-अवस्था में दृष्टिगोचर नहीं होते, वैसे ही यद्यपि ये जीवमात्र मुझ में ही भासमान होते हैं, पर फिर भी इन जीवों में मेरा निवास नहीं होता। इस तत्त्व का निरूपण मैं इससे पहले भी एक बार तुम्हें बतला चुका हूँ। अत: एक बार बतलायी हुई बात का पुनर्विस्तार करना उचित नहीं है, इसलिये यहाँ इतना ही कहना यथेष्ट है; पर तुम्हारी दृष्टि मेरे स्वरूप में प्रविष्ट होकर विस्तृत होनी चाहिये।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (64-70‌)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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