ज्ञानेश्वरी पृ. 248

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग


अश्रद्दधाना: पुरुषा धर्मस्यास्य परंतप ।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि ॥3॥

देखो, दूध अत्यन्त पवित्र और स्वादिष्ट होता है और वह दूध गौ के थन में अत्यन्त ही पतली त्वचा की ओट में भरा रहता है। फिर भी थन में लगी हुई किलनी क्या दूध का परित्याग करके उसके रक्त का पान नहीं करती? भ्रमर और दर्दुर-ये दोनों ही कमल के सन्निकट रहते हैं, पर कमल-पराग का पान सिर्फ भ्रमर ही करता है और दर्दुर के हिस्से में सिर्फ कीचड़ ही आता है। इसी प्रकार यदा-कदा किसी भाग्यहीन के घर में सहस्रों मोहरों से भरे हुए कलश पड़े रहते हैं; पर वह अभागा उसी घर में रहकर भी भूखों मरता है अथवा दरिद्रता में ही रहकर अपना जीवन काटता है। उसी प्रकार हृदय में स्थित समस्त सुखों के भण्डार मुझ आत्माराम के रहते हुए भी माया से मोहित व्यक्तियों की वासना विषय-भोगों की तरफ ही दौड़ती है। जिस प्रकार अपार मृगजल देखकर मुख का अमृत का घूँट उगल दिया जाय अथवा गले में बँधा हुआ पारस पत्थर तो तोड़कर फेंक दिया जाय और उसके स्थान पर एक सीपी बाँध ली जाय, ठीक वैसे ही ‘मैं और मेरा’ के चक्कर में पड़कर वे बेचारे जीव मेरे निकट तक आकर पहुँच नहीं सकते और इसीलिये जन्म-मरण के दोनों तीरों के मध्य में डूबते रहते हैं और नहीं तो मैं ऐसा हूँ कि नित्य नेत्रों के सामने ही रहता हूँ। मैं उस सूर्य की भाँति नहीं हूँ जो कभी तो दृष्टिगोचर होता है और कभी मेघों की ओट में छिप जाने के कारण अथवा रात्रि-वेला में दृष्टिगत नहीं होता, यह उनमें अवगुण है, परन्तु मैं तो नित्य नेत्रों के समक्ष चमकने वाला और निर्मल हूँ।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (57-63)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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