ज्ञानेश्वरी पृ. 246

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

Prev.png

अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग


श्रीभगवानुवाच
इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे ।
ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥1॥

श्रीभगवान् ने कहा-“हे अर्जुन! मैं तुम्हें वह गूढ़ रहस्य फिर से बतलाता हूँ जो मेरे अन्तःकरण के सबसे भीतरी स्थान के समस्त ज्ञान का आदि बीज है। अब यदि तुम यह सोचते हो कि हृदय फोड़कर यह रहस्य प्रकट करन का ऐसा कौन-सा प्रसंग आया है, तो हे बुद्धिमान् अर्जुन! सुनो। तुम आस्था की मूर्ति हो। मैं जो कुछ कहूँगा, तुम कभी उसकी अवज्ञा नहीं करोगे। इसीलिये चाहे मन की गूढ़ता भले ही नष्ट हो जाय और जो कहने योग्य बातें नहीं हैं, वे भी चाहे भले ही कहनी पड़ें; पर फिर भी मेरी यही लालसा है कि मेरे अन्तःकरण में जो कुछ है, वह सब एक बार तुम्हारे अन्तःकरण में समा जाय। थन में दूध भरा रहता है, पर स्वयं वह दूध थन को स्वादिष्ट नहीं लगता। पर जब कोई एकनिष्ठ व्यक्ति मिलता है, तब सहज ही यह अभिलाषा होती है कि उसकी रसास्वादन की लालसा पूरी हो। यदि अन्न के बखार में से बीज निकाले जायँ, और तैयार की हुई भूमि में कुछ बीज बो दिये जायँ, तो क्या कोई यह कह सकता है कि वे बीज निरर्थक ही गवाँ दिये गये? इसीलिये जिसका मन अच्छा और बुद्धि शुद्ध है तथा जो अनिन्दक और एकनिष्ठ है, उसे अपने मन की बात प्रसन्नतापूर्वक बतला देनी चाहिये और इस अवसर पर मुझे इन गुणों से युक्त तुम्हारे सिवा और कोई नहीं दिखायी पड़ता; इसीलिये तुमसे कोई रहस्य छिपाना उचित नहीं है।

बारम्बार यह ‘गुप्त’ शब्द सुनते-सुनते तुम्हारे मन में आश्चर्य होता होगा, इसलिये अब मैं तुम्हें विज्ञानसहित ज्ञान की बातें साफ-साफ बतलाता हूँ। यदि बहुत-सी शुद्ध और अशुद्ध वस्तुएँ एक में मिल गयी हों, तो जैसे उन्हें परखकर और छाँट कर ही उनके पृथक्-पृथक् ढेर लगाने की जरूरत होती है, वैसे ही मैं ज्ञान और विज्ञान की परख करके उन्हें पृथक्-पृथक् तुम्हारे समक्ष रखना चाहता हूँ अथवा जैसे राजहंस अपनी चोंचरूपी सँड़सी से नीर और क्षीर पृथक्-पृथक् करता है; वैसे ही मैं भी ज्ञान और विज्ञान को पृथक्-पृथक् करके तुम्हें बतलाना चाहता हूँ। फिर जैसे वायु के प्रवाह में पड़ा हुआ भूसा उड़ जाता है और सिर्फ अनाज के दानों का ही ढेर अवशिष्ट रह जाता है, वैसे ही जब समझदारी से ज्ञान और विज्ञान की परख तथा पृथक्त्व हो जाता है, जब जीवन-मरण वाले संसार का इस नाम-रूप वाले संसार के साथ मेल-मिलाप हो जाता है और वह परम ज्ञान हमें मोक्षरूपी लक्ष्मी के सिंहासन पर ले जाकर बैठा देता है।[1]

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (34-46)

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः