ज्ञानेश्वरी पृ. 243

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग

जो स्वयं सुगन्ध हो, वह भला कौन-सी चीज सूँघे? स्नान करने के लिये स्वयं समुद्र किस दह में जाय? और ऐसी कौन-सी विस्तृत जगह है, जिसमें सम्पूर्ण आकाश समा सके? इसी प्रकार भला ऐसा वक्तृत्व मैं कहाँ से ला सकता हूँ जिससे आप सबका चित्त सन्तुष्ट हो और आप सबको इतना आनन्द हो कि आप सब लोगों के मुख से इस प्रकार का धन्यता का उद्गार निकले- “वाह! वक्तृत्व हो तो ऐसा हो।” पर फिर भी क्या सम्पूर्ण विश्व को प्रकाशित करने वाले सूर्य की आरती हस्तनिर्मित बत्ती से न की जाय? अथवा अपार जल राशि वाले समुद्र को क्या चुल्लूभर जल से अर्घ्य न दिया जाय? आप सब लोग भगवान् शंकर की मूर्ति हैं और आप लोगों की आराधना करने वाला मैं भक्त दुर्बल हूँ, बिल्व-पत्र अर्पण करने की जगह एक साधारण पेड़ की पत्ती जैसे शिवलिंग पर चढ़ायी जाय उसी प्रकार मेरा व्याख्यान है। फिर भी आप सब लोग उसको सादर स्वीकार करेंगे ही।

बालक अपने पिता के भोजन की थाली में बार-बार हाथ डालता है और अपने पिता के मुख में ही अन्न का ग्रास डालने लगता है और पिता भी बड़ी प्रसन्नता से वह ग्रास लेने के लिये अपने मुख को आगे बढ़ाता है। ठीक इसी प्रकार यदि मैं बाल-बुद्धि और प्यास से निरर्थक और अतिरिक्त अपनापन प्रकट करूँ, तो भी प्रेम का यह स्वाभाविक धर्म ही है कि उससे आप सब लोग सन्तुष्ट ही होंगे। आप सन्तजनों के अन्तःकरण में अपने आश्रितों के विषय में अपनापन के कारण अत्यधिक प्रेम होता है; इसीलिये मैं प्यार से जो अपनापन दिखला रहा हूँ, वह आप लोगों को बोझस्वरूप नहीं मालूम होगा। जिस समय गाय के स्तन में भूखे बछड़े के मुख का झटका लगता है, उस समय गाय के स्तन में और भी अधिक दूध भर आता है तथा वह बछड़े को दुग्ध-पान कराने के लिये और भी अधिक उत्सुक हो जाती है। जो अपने को प्रिय होता है, वह यदि एक बार क्रोध से झटकार भी दे, तो उससे प्रेम और भी द्विगुणित हो जाता है। इसीलिये मैंने भी यही समझकर ये सब बातें कही हैं कि मुझ-जैसे बालक की निरर्थक वार्ता से आप लोगों की सुषुप्त कृपालुता जाग उठी है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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