ज्ञानेश्वरी पृ. 241

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-8
अक्षरब्रह्म योग


वेदेषु यज्ञेषु तप:सु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम् ।
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम् ॥28॥
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे अक्षरब्रह्मयोगो नामाष्टमोऽध्यायः।।8।।

यदि कोई व्यक्ति समस्त वेदों का अध्ययन करके अथवा सब प्रकार के यज्ञों का सम्पादन करके अपार पुण्य संचित कर ले अथवा तप, दान इत्यादि करके पुण्य प्राप्त कर ले तो भी इन समस्त पुण्यों का समूह अथवा कर्मफलों की पूर्णता भी कभी निर्मल परब्रह्म की बराबरी नहीं कर सकती। जो स्वर्ग-सुख यदि तराजू पर रखकर तौले जायँ तो वजन में ब्रह्मानन्द की अपेक्षा कम नहीं जान पड़ते, वेद और यज्ञ इत्यादि जिन स्वर्ग-सुखों के साधन हैं, जिन स्वर्ग-सुखों से कभी मनुष्य का जी नहीं भरता अथवा जिन स्वर्ग-सुखों का कभी अवसान नहीं होता, अपितु जो स्वर्ग-सुख भोगने वाले की इच्छानुसार और अधिक बढ़ते जाते हैं; जो स्वर्ग-सुख अपने बढ़ते हुए गुणों के कारण ब्रह्म-सुख के सम्बन्धी बल्कि प्रायः सहोदर की ही भाँति प्रतीत होते हैं, जो स्वर्ग-सुख इन्द्रियों को तृप्त करने के कारण इन्द्रियों में ब्रह्म-सुख की जगह पर आसन लगाने के योग्य समझे जाते हैं, जो स्वर्ग-सुख सौ यज्ञ करने वाले को भी शीघ्र नहीं मिलते, उन्हीं स्वर्ग-सुखों को जब श्रेष्ठ योगी अपनी उस दृष्टि से देखते हैं जो ब्रह्मज्ञान के कारण दिव्य हो जाती है और उन स्वर्ग-सुखों को हाथ पर रखकर उनके वजन का अनुमान करते हैं, तब उन्हें यह ज्ञात होता है कि वे स्वर्ग-सुख उस सुख के समक्ष बहुत ही तुच्छ हैं जो ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति के कारण होता है। हे किरीटी! उस समय योगी लोग उन स्वर्ग-सुखों को धूल समझकर अपने पैरों के नीचे सीढ़ी बनाकर उन्हीं पर पैर रखकर परब्रह्म की पीठ पर सवार हो जाते हैं।”

इस प्रकार जो चराचर सृष्टि के एकमात्र भाग्य हैं, जो ब्रह्मा और शंकर के द्वारा आराधित हैं, जो एकमात्र योगिजनों की ही भोग्य वस्तु हैं, जो सम्पूर्ण कलाओं को भी कला प्रदान करने वाले हैं, जो परमानन्द की मूर्ति हैं, जो जगत् के समस्त जीवों के जीवन हैं, जो सर्वज्ञता के मूल उद्गम हैं, जो यादव कुल के कुलदीपक हैं, उन श्रीकृष्ण ने पाण्डु पुत्र अर्जुन से ये सब बातें कहीं। इस प्रकार कुरुक्षेत्र में जो-जो घटनाएँ घटी थीं, संजय उनका विशद वर्णन महाराज धृतराष्ट्र से कर रहे थे। मैं ज्ञानदेव आप श्रोतागणों से प्रार्थना करता हूँ कि आप लोग वही वर्णन और आगे सुनें।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (261-271)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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