श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-1
अर्जुन विषाद योग
यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतस: । फिर अर्जुन ने कहा-“यद्यपि ये लोग अभिमान के मद से अन्धे होकर युद्ध के लिये आये हुए हैं तथापि हमें अपने हित का विचार करना चाहिये। भला यह कैसे हो सकता है कि मैं ही अपने हाथों से अपने वंशजों की हत्या करूँ? क्या मैं जान-बूझकर यह कालकूट नामक विष पी जाऊँ? अजी, मार्ग में चलते-चलते यदि अचानक कोई सिंह सामने आ जाय तो उससे अपना बचाव कर लेना ही श्रेयस्कर है। हे प्रभो! अब आप ही बताइये कि तीव्र प्रकाश छोड़कर अन्धकूप में प्रवेश करने में क्या लाभ है? यदि सामने आग देखकर भी हम उससे बचकर न निकलें तो वह पलभर में हमें भस्म ही कर डालेगी। इस प्रकार यह हत्यारूपी दोष मुझ पर लिपटना चाहता है तो फिर यह बात जानते हुए भी मैं किस प्रकार इस कार्य में प्रवृत्त होऊँ।” फिर अर्जुन ने यह भी कहा-‘हे देव! यह पाप कितना भयंकर है, बात को मैं विस्तारपूर्वक आपको बतलाता हूँ। अब आप मेरी बातों केा जरा ध्यान से सुनें।[1] कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्मा: सनातना:। जिस प्रकार लकड़ी पर लकड़ी रगड़ने से उससे जो अग्नि निकलती है वह प्रदीप्त होकर सारी-की-सारी लकड़ियों को भस्म कर डालती है, उसी प्रकार जब एक ही कुल में उत्पन्न लोग मत्सर से परस्पर घात करने लगते हैं, तब उस घोर पाप के (दोष के) कारण सारे वंश का विनाश हो जाता है। इसीलिये इस पाप-कर्म से वंशपरम्परागत कुल के धर्म का नाश हो जायगा और तब सारे कुल में अधर्म के सिवा कुछ भी नहीं बचेगा। अर्थात कुल में अधर्म फैल जायगा।[2] |
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |