ज्ञानेश्वरी पृ. 24

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-1
अर्जुन विषाद योग

यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतस: ।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ॥38॥
कथं न ज्ञेयमस्माभि: पापादस्मान्निवर्तितुम् ।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ॥39॥

फिर अर्जुन ने कहा-“यद्यपि ये लोग अभिमान के मद से अन्धे होकर युद्ध के लिये आये हुए हैं तथापि हमें अपने हित का विचार करना चाहिये। भला यह कैसे हो सकता है कि मैं ही अपने हाथों से अपने वंशजों की हत्या करूँ? क्या मैं जान-बूझकर यह कालकूट नामक विष पी जाऊँ? अजी, मार्ग में चलते-चलते यदि अचानक कोई सिंह सामने आ जाय तो उससे अपना बचाव कर लेना ही श्रेयस्कर है। हे प्रभो! अब आप ही बताइये कि तीव्र प्रकाश छोड़कर अन्धकूप में प्रवेश करने में क्या लाभ है? यदि सामने आग देखकर भी हम उससे बचकर न निकलें तो वह पलभर में हमें भस्म ही कर डालेगी। इस प्रकार यह हत्यारूपी दोष मुझ पर लिपटना चाहता है तो फिर यह बात जानते हुए भी मैं किस प्रकार इस कार्य में प्रवृत्त होऊँ।” फिर अर्जुन ने यह भी कहा-‘हे देव! यह पाप कितना भयंकर है, बात को मैं विस्तारपूर्वक आपको बतलाता हूँ। अब आप मेरी बातों केा जरा ध्यान से सुनें।[1]

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्मा: सनातना:।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ॥40॥

जिस प्रकार लकड़ी पर लकड़ी रगड़ने से उससे जो अग्नि निकलती है वह प्रदीप्त होकर सारी-की-सारी लकड़ियों को भस्म कर डालती है, उसी प्रकार जब एक ही कुल में उत्पन्न लोग मत्सर से परस्पर घात करने लगते हैं, तब उस घोर पाप के (दोष के) कारण सारे वंश का विनाश हो जाता है। इसीलिये इस पाप-कर्म से वंशपरम्परागत कुल के धर्म का नाश हो जायगा और तब सारे कुल में अधर्म के सिवा कुछ भी नहीं बचेगा। अर्थात कुल में अधर्म फैल जायगा।[2]

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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  2. (243-245)

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