श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-8
अक्षरब्रह्म योग
मृत्यु के समय वात और कफ की अधिकता से अन्तःकरण में अन्धकार भर जाता है, समस्त इन्द्रियाँ काष्ठवत् जड़ हो जाती हैं, स्मृति भ्रम में डूब जाती है, मन में पागलपन सवार हो जाता है और प्राण घुटने लगते हैं। शरीर के अन्दर विद्यमान अग्नि का तेज नष्ट हो जाता है और चतुर्दिक् धूम्र-ही-धूम्र फैल जाता है जिससे शरीर की चेतना विलुप्त हो जाती है। जैसे चन्द्रमा के समक्ष सजल घनघोर बादल आ जाने पर न तो पूर्ण अँधेरा ही रहता है और न ही पूर्ण उजाला, अपितु कुछ-कुछ धुँधला-सा प्रकाश रहता है, वैसे ही उस समय जीव में एक ऐसी स्तब्धता-सी आ जाती है जिसमें वह मरा हुआ भी नहीं होता और न होश में ही रहता है; और उसका जीवन मृत्यु के कगार पर पहुँचकर रुक-सा जाता है। इस प्रकार जब उस जीव पर चतुर्दिक् मन, बुद्धि और इन्द्रियों का दबाव पड़ता है, तो फिर जन्म भर कष्ट सहकर एकत्रित किया हुआ लाभ का (योगाभ्यास का) अन्त हो जाता है और जब हस्तगत वस्तु भी गँवा दी जाती है, उस समय यह तो कहा ही नहीं जा सकता कि वह वस्तु फिर से बटोरी जा सकती है। बस मृत्यु के समय ऐसी ही दुरवस्था होती है। यह तो हुई देह की भीतरी स्थिति। अब यदि बाहर की स्थिति भी ऐसी ही प्रतिकूल हो, अर्थात् कृष्ण पक्ष हो रात का समय हो और दक्षिणायन के छः मासों में से कोई मास हो, अर्थात् जिसके प्राणान्त के समय जीवन और मृत्यु का चक्र प्रचलित रखने वाले ऐसे लक्षण एक साथ इकट्ठे हों तो भला उसके कानों को ब्रह्मस्वरूप की प्राप्ति की बात कैसे सुनायी पड़ सकती है? जिस व्यक्ति का शरीर-त्याग इस प्रकार की बुरी अवस्था में होता है, वह ज्यादा-से-ज्यादा केवल चन्द्रलोक तक ही जा सकता है और फिर वह वहाँ से कुछ समय पश्चात् लौटकर इसी संसार में जन्म लेता है। हे पाण्डव! मैंने जिसे देहत्याग के लिये अकाल कहा है, वह यही है और यही जन्म-मृत्यु रूपी ग्राम तक पहुँचाने वाला कष्टप्रद धूम्रमार्ग है। इसके अलावा जो दूसरा अर्चिरादि नाम का मार्ग है, वह पूर्णरूप से बसा हुआ स्वतन्त्र, सब प्रकार की शान्ति, सुख और सुविधा से भरा हुआ निवृत्ति (मोक्ष) तक पहुँचाने वाला है।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (226-237)
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